तलाश by अभिषेक दलवी (essential reading txt) 📕
इक्कीसवी सदी में एक नौजवान उभरा, जिसमे वह खजाना पाने का हौसला ,काबिलियत और जरूरत थी। उस नौजवान को उस खजाने की तलाश थी या फिर उस खजाने को नौजवान की ,यह कह पाना मुश्किल है पर उसने वह खजाना पाने का फैसला कर लिया या फिर हम यह भी कह सकते है हालातोंने उसे उस खजाने की तलाश में छोड़ दिया । उसकी यह तलाश बिल्कुल भी आसान नहीं थी ,उसे ऐसे मुश्किलों का सामना करना पड़ता जो उसने ना ही कभी देखे थे और ना ही कभी सुने थे, कई बार उसे मौत का सामना भी करना पड़ा। पर इस सब के बावजूद क्या उसे खजाना मिला ?
सतराहवी शताब्दी मे जोधपुर के एक व्यापारी अपनी जिंदगी की सारी जमापूँजी जिसमे कई सोना, कीमती हिरे ,मोती ,नीलम मानक शामिल थे । ऐसा कीमती खजाना अपनी शाही हवेली के अंदर पहरेदारों के बीच रखने के बजाए एक मराठा सरदार से उसे महफूज रखने की विनती क्यों करते है ??
उदय शर्मा पंद्रह बीस साल पहले मुंबई की गलियों मे रहनेवाला मामूलसा नौजवान जो दो वक्त की रोटी के लिए किसी मिल मे नौकरी कर रहा था । वह अपने सपने , सूझबूझ और हिम्मत से कुछही सालों मे इतनी तरक्की कर लेता है की मजदूर से मालिक बन जाता है । आसमान की बुलंदीयो कॊ छूने की कोशिश करता है । आलीशान महलों मे रहनेवाली एक हसीना यौवना उसकी होशियारी , बहादुरी और काबीलियत पर इतनी मोह जाती है की अपनी सारी जिंदगी हमेशा हमेशा के लिए उसके नाम कर देती है ।
पर उस नौजवान जिंदगी यही नही रुकती उसके जीवन मे एक ऐसा मोड़ आता है की नियती उसने कमाई हुई सारी पूँजी , इज्जत यहाँ तक की उसकी जीवनसाथी भी उससे छीन लेती है । पुलिस केस , कर्जा और दुश्मनों की चंगुल से अपनी जान बचाते हुए वह ऐसी जगह पहुँचता है । जहाँ वह उस जगह से पूरी तरह अंजान रहता है मगर वह जगह वह मिट्टी उससे अच्छी तरह वाकिफ रहती है । वहाँ उसे कई मुश्किलों से गुजरना पड़ता है और वही मुश्किलें उसका भविष्य तय करती है ।
उसके साथ वहाँ क्या क्या होता है यह जानने के लिए आप यह उपन्यास जरूर पढिए । आशा है आपको जरूर यह कहानी रोचक महसूस होगी ।
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- Author: अभिषेक दलवी
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" ठीक है...ये डील मूझे मंजूर है बाकी की बाते कल ऑफिस मे हो जाएगी "
" ठीक है तो कल ऑफिस मे ही मिलते है वैसे हमारा पोता कहाँ है किधर नजर नही आ रहा "
" रिम्पी इन्हे अमन से मिलवाओ " रणवीरसिंह के कहने के बाद रिम्पी के साथ मदनलाल चले गए ।
रणवीरसिंह और अजित भी रूम से बाहर आ गए।
" अजित दुनियाँ सच मे कितनी बेवकूफ है ।कहती है पैसों से खुशियाँ खरीदी नही जाती मगर सच बात तो ये है की जादा से जादा दुख सिर्फ पैसों से कम होते है। एक वक्त था जब ये इंसान मूझे बर्बाद करने पर तुला था और आज खुद को बचाने के लिए इसे मेरी ज़रूरत पड़ रही है। किसी ने सच ही कहाँ है दुनियाँ झुकती है बस झूकानेवाला चाहिये " रणवीरसिंहने मुस्कुराते हुए कहाँ।
" वैसे कुछ भी बोल रणवीर जब भी तेरे बारे मे सोचता हूँ तूम पर हमेशा फक्र महसूस होता है। जहाँ से तूमने शुरुआत की थी और आज जहाँ तक पहुँच चुके हो कमाल है।
पैदायशी अमीर जो सोच नही सकते वो तूमने कर दिखाया है "
" अरे पुरखों की मेहेरबानी थी और तेरे जैसे दोस्तो का साथ वरना क्या मुमकिन था "
" फिर वही बात ! मैने ऐसा क्या साथ दिया तुम्हारा सिर्फ उतना ही किया जो एक दोस्त दोस्त के लिए करता है और रहा सवाल पुरखों की मेहेरबानी का तो उससे पहले भी तूम कामीयाब थे और आज भी हो .....सच मे तुम्हारे जैसे लोग बहुत कम होते है दुनियाँ मे "
" अरे बस बस सारी तारीफ आज ही कर लोगे क्या चल आ बाहर " कहकर रणवीरसिंह अजित को लेकर वापिस पार्टी मे पहुँच गये।
दस बज चुके थे पार्टी लगभग खत्म हो चुकी थी सारे मेहमान निकलने लगे थे। रणवीरसिंह दिनभर की थकावट से थोडा चैन पाने के लिए इस भीड़ से दूर अपने बंगले की टेरेस पर जा पहुँचे ।
टेरेस के चारों कोनों मे लगे हुए लॅम्प से टेरेस पर काफी रोशनी थी। रणवीरसिंह टेरेस की पॅरपेट वॉल के पास जाकर खड़े हो गए। आसमान मे थाली के भाँति गोल चंद्रमाँ तारों के बीच सफर कर रहा था ।सामने जूहू का किनारा और उसपे धडकती हुई लहरें दिखाई दे रही थी उनकी आवाज गूँज धीमी धीमी सुनाई दे रही थी। समंदर से आनेवाली ठंडी हवा बदन मे एक हल्की सिहरन पैदा कर रही थी। रणवीरसिंह का ध्यान नीचे की तरफ गया बंगले के गेट से मेहमानों की आलिशान गाड़िया एक एक करके बंगले के बाहर निकल रही थी। थोडी आगे की तरफ उसने देखा बाहर का रास्ता दिख रहा था और उस पर चलनेवालों लोग ।उनको देखकर रणवीरसिंह को अपनी पिछली जिंदगी याद आने लगी काफी सालों पहले वो भी इन्ही लोगों के बीच इन्ही की तरह जी रहा था। वही आम जिंदगी छोटासा घर , थोडे बहुत कपडे , कम ज़रूरते , गिने चुने दोस्त। तीन साल की उम्र मे वो अपने मामा के साथ मुंबई आया था तब क्या था उसके पास कुछ नही। लालबाग की एक छोटेसी गली मे घर , पढ़ाई जादा से जादा बारहवी तक आगे पढ़ने की कोशिश की लेकिन पैसों की कमी की वजह से वो भी दो सालों बाद छोड़नी पड़ी। उसकी जिंदगी भी बाकी लोगों की तरह गुज़र रही थी। सुबह सुबह उठना , एक घुँट चाय पीकर ट्रेन पकडना , भीड़ भाड से गुज़र कर काम पर पहुँचना , दिनभर काम करने के बाद शाम को थके हारे घर लौटना ,आस पड़ोस के घर जाकर टीवी देखना , मेस की सुँखि रोटियाँ तोड़ने के बाद थके हारे बदन से लेट जाना। फिर अगली सुबह वही सबकुछ वही ट्रेन ,वही नौकरी , वही काम लेकिन उन बाकी लोगों मे और रणवीर मे बहुत बड़ा फर्क था वो फर्क था सपनों का। रणवीर के सपने बाकी लोगों से बहुत अलग थे। जब उसके उम्र के बच्चे छुट्टी के दिन गली मे क्रिकेट खेला करते थे तब वो मुंबई के आलिशान इलाकों मे घूमकर बंगलो मे रहने के सपने देखता था। एक मामूली और एक काबिल इंसान दोनों माँ के कोख से जन्म लेकर आखिर शमशान मे ही पहुँचते है। लेकिन फर्क तो दोनों के जिने के अंदाज मे होता है। उदयने बचपन मे ही तय कर लिया था वो पैदा जरूर एक आम आदमी के घर मे हुआ है लेकिन आम आदमी की जिंदगी नही जीएगा। एक दिन बहुत नाम कमाएगा और यही कारण था की आज वो यहाँ तक पहुँचा था। एक वक्त मे जिस भीड़ से गुज़र बसर कर रहा था आज वो उसको सलाम करती थी। एक ज़माने मे जिन लोगों को टीवी पे देखा करता था आज उन लोगों के साथ उसका उठना बैठना होता था। उस वक्त मे आलिशान बंगलों मे रहने के सपने देखनेवाला लड़का आज सच मे उस मुक्काम तक पहुँच चुका था।
लेकिन रणवीर का उस गली से लेकर इस बंगले का सफर आसान नही था। इसी सफर मे रणवीर के जिंदगी मे एक बहुत बड़ा मोड़ आया जिसने उसकी जिंदगी मे पूरी तरह से हलचल मच गई इतनी की वो बर्बाद होकर रास्ते पे आया था। ये कहानी है उसी सफर की...
बारह साल पहले की बात है।
मुंबई से थोडी दूर रत्नागिरी जिले का संगमेश्वर गाँव चैन की नींद सो रहा था। गाँव की पश्चिम की तरफ एक बीस एकर मे आम का बगीचा फैला हुआ था। उसके बीचोबीच एक फार्महाऊस था। एसी से लेकर स्विमिंगपूल तक सारी आधुनिक सुविधाएँ उसमे तयार थी। चार नौकर , फार्महाऊस और बगीचे के लिए केअर टेकर , बीस माली उनके परिवार और कुछ गार्डस हमेशा उसकी निगरानी मे रहते थे। लोगों के के कहने मुताबिक ये सारी प्रॉपर्टी महाराष्ट्रा के एक मंत्री प्रभाकर देशमुख के मालिकी की थी। महीने मे दो तीन बार तो उनका यहाँ आना जाना रहता ही था। रात के बारा बज चुके थे बगीचे मे माली और उधर काम करनेवाले लोग नींद मे समा गए थे। उस जगह के मेनगेट पर चार गार्ड हमेशा की तरह ड्यूटी पे थे। फार्महाउस की पीछेवाले बड़े स्विमिंगपुल के डेक पर एक पचास पचपन साल का एक आदमी हाथ पीछे लेकर चक्कर लगा रहा था ।
इतनी आयु होने के बावजूद भी कसा हुआ शरीर , शानदार मूछे , बदन पे एक सफ़ारी सूट और चेहरे पर बहुत सारी चिंता। उधर बगल मे ही लकड़ी से बने सन बाथिँग चेअर पर एक नौजवान बैठा हुआ था ।उसके पड़ोस मौजूद छोटे टेबल पर रखे काँच के अॅश ट्रे मे दस बारा सिगरेट के जले हुए टुकड़े थे। एक जलती हुई सिगरेट अब भी उस लेटे हुए शख्स के मुट्ठी की तर्जनी और बीचवाली उँगली मे अब भी एक सिगरेट सुलग रही थी। उसने मुट्ठी मुँह की तरफ़ लेकर सिगरेट अपने मुँह से लगाकर इतना जोरदार सट्टा लगाया की उसके दूसरे सिरे पर सुलग रही अग्नि किसी एक जुनून के साथ किसी मानिंद के भाँति चमक उठी। वो उदासी भरी नजरो से आसमान पर टिकाए कश पे कश लगाते जा रहा था। आँखे लाल थी , चेहरा मुरझा हुआ था। मानो दो दिन से चैन की नींद नही ले पाया हो। उसके चेहरे पर भी चिंता और मायूसी दोनों छायी थी। इस शख्स का नाम था उदय शर्मा जिसके जिंदगी के आज सबसे बुरे दिन चालू थे।
उदय चौधरी जिसका जन्म पूने मे हुआ था। बचपन मे ही वो अपने मामा रामप्रसाद शर्मा के साथ मुंबई आ गया। उसके मामा पास ही की कपड़ा मिल मे काम मिल गया। उनका मजबूत शरीर , तेजधार आवाज , रोख ठोक बोलने की आदत और मजदूरों की प्रति आस्था देखकर कुछ सालों मे वो यूनियन लीडर बन गये। उदय की बारहवी तक की पढ़ाई मुंबई मे ही पूरी हो गई ।आगे की पढ़ाई के लिए उसने पूना जाने का फैसला किया। लेकिन उसी वक्त मिल वर्कर की हड़ताल शुरू हुई इससे उसके मामा को पैसे मिलने बंद हो गये। उनके पास जितने पैसे थे वो उन्होने गरीब मजदूरों के मदद के लिए लगा दिए। जिस मिल मे वो काम किया करते थे वो हड़ताल के बाद पूरी तरह से बंद हो गई। पैसों की तंगी होने के कारण उदय को पढ़ाई छोड़कर मुंबई आना पड़ा। उदयने पढ़ाई तो छोड़ दी थी लेकिन हार नही मानी थी। उदय का नजरिया बचपन से ही बाकी लोगों से अलग रहा था। दो वक्त की रोटी और रहने के लिए छोटासा घर ऐसे मामूली सपने कभी देखे ही नही। जिंदगी मे आगे बढ़ने का और दुनियाँ जीतने का जुनून उस पर सवार था। उसने खर्चा चलाने के लिए पास ही की मिल मे नौकरी करना शुरू कर दिया। उस नौकरी मे तरक्की करने का मौका उसे नजर नही आ रहा इसीलिए उसने एडन जाने का फैसला किया उस वक्त कई भारतीय लोग ऐसे देशों मे किस्मत आजमाने जाते थे। उदयने मामा को अपने इस फैसले के बारे मे बताया ।मामाने सिर्फ कुछ ही दिनो मे उसके जाने का इंतजाम किया और उदय समंदर के रास्ते एडन पहुँच गया। उधर एक साल काम करने के बाद वो यूरोप चला गया। यूरोप जाकर उसे विदेशी कपडे की मुलाकात हो गई। ऐसा कपड़ा भारत मे भी मिलता था लेकिन काफी महँगा और क्वालिटी के हिसाब से निचली दर्जा का था। उदय अपनी होशियारी की वजह से कंपनी के ऊपरी अधिकारीयों के नज़रों मे आ गया ।उनमें से एक थे मोहन सक्सेना जो की हिंदुस्तानी थे लेकिन तीस साल पहले यूरोप मे आकर बस गये थे। उदय होशियार तो था और एक हिंदुस्थानी होने की वजह से उन्हे उदय से लगाव था। उदयने इस कपड़े को भारत मे बेचने की तरकीब उन्हे सुझाई उन्होने उसके मुताबिक कंपनी के ऊपरी अधिकारी और डायरेक्टर से बात की उनको भी ये योजना पसंद आयी और उन्होने अपनी कंपनी का एक यूनिट भारत मे बनाने का फैसला किया।
उदय उस यूनिट का मार्केटींग हेड बनकर फिर मुंबई आ गया। चार महीने की कड़ी मेहनत के बाद ये यूनिट शुरू हो गया लेकिन उदय को क्या पता था की उसके सामने एक नयी मुसीबत खड़े होनेवाली है। अपने यूनिट मे बननेवाले कपड़े को मार्केट मे बेचने के लिए उसे ट्रेडर्स की ज़रूरत थी। उस वक्त मार्केट मे टेक्सटाईल ट्रेडर्स की यूनियन काफी मजबूत थी और उसके चेअरमन थे पूर्व चेअरमन किसनलाल छेड़ा के भाई मदनलाल छेड़ा। उदय इस मार्केट मे नया था उसके यूनिट की मार्केटींग की सारी जिम्मेदारी उसकी थी ।
उदय के मुंबई मे धंदे से इससे पहले कोई तालुकात नही थे ।उसको सपोर्ट करनेवाला भी कोई नही था कंपनी भी परदेसी थी। मदनलाल छेड़ा को इस बात का पता लग गया। उसने अपने पीए को उदय के पास भेजकर काफी सारी रिश्वत की माँग की। जितनी रिश्वत उन्होंने माँगी थी उतनी रकम देना उदय के बस की बात नही थी क्योंकि जितनी इनवेस्टमेंट कंपनीने इस यूनिट मे की थी वो सब रकम खत्म हो चुकी थी इसलिए उदयने मदनलाल छेड़ा के पीए को रकम देने से मना कर दिया। इस बात से मदनलाल छेड़ा के अहंकार को ठेस पहुँची क्योकि उसके जैसे इंसान के लिए वो रकम मामूली थी उसको लगा उदयने इस तरह से उसकी बेइज्जती की है। टेक्स्टटाइल ट्रेडिंग मार्केट मे उसका हुक्म चलता था। फिर वही हूँआ जो होना था कोई भी ट्रेडर उदय के यूनिट मे बना कपड़ा लेने के लिए इंकार करने लगा। उदय की कोई गलती ना होने के बावजूद भी वो मदनलाल के ऑफिस माफी माँगने पहुँच गया। लेकिन लगातार तीन दिन तक मदनलाल ऑफिस पर हाज़िर होकर भी वो उदय को टालता रहा। यहाँ कुछ काम नही बन रहा देख उदय मदनलाल के बंगले पर जा पहुँचा लेकिन उधर मदनलालने उसकी बहुत बेइज्जती की आखिर मे उदय की भी सहनशक्ति का अंत हुआ वो भी झगडा करके वापिस आ गया। उदय को पता चल गया था मदनलाल अब ना ही उसे माफ करेगा और ना ही उसका माल मार्केट मे आने देगा। उदय बहुत बड़ी मुश्किल मे फँस चुका था फॅक्टरी मे तयार हुआ सारा माल वैसे पड़ा था। मजदूरों को उनकी तनख्वाह नही दी थी वो अगर नही दी तो वो हंगामा मचा देंते। सालों पहले हुए मिल हड़ताल के बाद कोई भी मिल मजदूर अपने मालिक के ऊपर भरोसा रखने से कतराता था। उदय की जगह अगर दुसरा कोई होता तो कब का हार मान लेता क्योंकि इसमें उसकी खुद की कोई इनवेस्टमेंट तो थी ही नही और नुकसान होने का सवाल
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