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Read book online «यूं ही बेसबब by Santosh Jha (best novels for teenagers .txt) 📕».   Author   -   Santosh Jha



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और उनके जवाब भी इंसानी समाज की कई पापुलर अवधारणाओं को नकारने का अवसर बना रहे हैं। इसका कारण है इंसानी मस्तिष्क की कार्यप्रणाली की बेहतर समझ।

वर्तमान मानवीय समाज एवं संस्कृतियों की जो मौजूदा समस्याएं एवं दुविधाएं हैं, वे सब एकबारगी खत्म होती दिखेंगी अगर हम सब इस नयी सोच के तहत चेतना एवं चेतना से जुड़े आयामों की पड़ताल करेंगे। मैंने अपनी सभी 32 किताबों में, चाहे वह फिक्शन हो या नानफिक्शन, इस नयी सोच एवं चेतना के नये आयामों के बारे में लिखा है। यह सारी किताबें ईबुक फारमैट में हैं और फ्री हैं।

नयी सहस्त्राब्दी की नयी सोच कल्चरल इवोल्यूशन का एक नया मानक भी दे रही है। यह नयी सोच यह कह रही है कि अब तक जो भी इवोल्यूशन हुआ, या जो विकास क्रम बन पड़ा है, वह एक्सीडेन्टल था, यानि वह हो गया। मगर, अब इंसान इतना सक्षम जरूर है कि भविष्य में जो भी गुणात्मक बदलाव होने हैं, उन्हें प्लानिंग करके समाज में स्थापित किया जा सकेगा। इस प्लानिंग की मूल रूपरेखा तैयार करेगा वैज्ञानिक तकनीक की इंसानी क्षमता। इस नये योजनाबद्ध सांस्कृतिक विकास का आधार बनेगी इंसान के दिमाग को लेकर नयी वैज्ञानिक समझ। हम आज इंसानों के व्यवहार की बेहतर समझ रख रहे हैं और इसलिए उसकी चेतना को लेकर जो तमाम अनसुलझे पक्ष थे, उनकी भी हमं आज बेहतर जानकारी है।

बेहद साधारण सी, सहज-सरल-सुगम सी बात है, समझ लेने से आगे की चर्चा को आत्मसात करने में सुविधा होगी। हम इंसानों की सोच, व्यवहार एवं इन दोनों के मिश्रण से बनी हमारी सभ्यता-संस्कृति तीन मूल अवधारणाओं, या यूं कह ले कि स्वीकृति पर आधारित हैं। वह तीन मूल तत्व हैं - चेतना, बोधस्वीकार्यता तथा कारकसंबंध, जिन्हें अंग्रेजी में ‘3सी’कहते हैं, यानि - कानसियसनेस, कागनिशन और काउजैलिटी। अबतक जो हमारी संस्कृति रही है, उसकी समस्याएं इन तीनों ही अवधारणाओं की दोषपूर्ण या एकपक्षीय समझ को लेकर रही है। हम आज इन तीनों ही तत्वों को वैज्ञानिक ज्ञान की वजह से पूर्णता एवं परिपक्वता में समझ सकने की काबिलियत पा चुके हैं। हम कौन हैं, जैसे हैं, वैसे क्यूं हैं, हम जो देख-समझ पाते हैं, यानि हमारी जो बोधव्यवस्था है, वह क्या व क्यूं है, जैसा दिखता-समझा जाता रहा है, वैसा है या उससे कुछ बेहद अलग है, जीवों तथा प्रकृतितत्वों के बीच क्या और कैसा संबंध व परस्परता है और इन सभी का पृथ्वी पर हम सबकी सोच-समझ पर व जीवनप्रक्रिया पर कैसा प्रभाव है, आदि मूल प्रश्नों के सार्थक, सही व सुनिश्चित जवाब आज हमारे पास आने लगे हैं। इस नयी समझ व जानकारी ने ही हमारी अब तक की पूरी सभ्यता-संस्कृति की अवधारणा को पुनः परिभाषित करने की जरूरत महसूस करायी है।

इसी नये ज्ञान के आलोक में यह बात निकली है कि अबतक का हमारा सांस्कृतिक विकास एक्सीडेंटल रहा है, जिसे अब दुरुस्त करना है, एक बेहद प्लान्ड व सुनियोजित तरीके से। बस, बात इतनी सी ही है। इस मूल हाईपोथेसिस को अगर हम-आप स्वीकार लेते हैं, तो हम सब जीवन व जीवन संबंधी सभी सोच व अवधारणाओं पर आत्मचिंतन के लिए तैयार हो पाते हैं। यही आज वक्त की सबसे जरूरी मांग है। यही सबसे अहम सांस्कृतिक चुनौती भी है। हम जितनी तेजी व सुगमता से इस नये ज्ञान को आत्मसात करके बदलाव के लिए राजी हो जायेंगे, उतनी ही संभावनाएं बढ़ेंगी आधुनिक इंसानी समाज की समस्याओं को दूर करने की। यही नया ज्ञान हम सब के लिए नये आध्यात्म का आाधार भी बनेगी।

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मुस्कुराएं, कि लीला के रंग बरसते हैं

सालों पहले, जब बेखुदी लुभाती थी, यूं ही लिख गया था, रंगो-ओ-बू से ऊपर उठती नही ये फितरत, कोई कहता की ये धुआं कहां से उठता है। यही मूल द्वंद है इस नश्वर जीवन का।

द्वंद को समझने और समझाने में, गीता जैसा कोई महान माध्यम शायद ही हो। अगर समझा जा सके तो ये साइंटिफिक पोजिशनिंग के बेहद करीब है। गीता की सबसे बड़ी उपलब्धि है सब्जेक्ट यानि कर्ता को परिभाषित कर पाना। साइन्स भी आज इसी सब्जेक्ट या सेल्फ और चेतना को समझने में लगा है। अगर सब्जेक्ट की अवधारणा समझ लीजिए तो सब आसान हो जाता है और फिर द्वंद मिट जाता है। तब आप ईश्वरमय हो सकते हैं, सच्चे मायनों में प्रेम कर सकते हैं और यह ईश्वर-तत्व और प्रेमतत्व इंसानियत का सबसे आइडियल बेंचमार्क है। जब तक हम मूल कर्ता के मेकेनिज्म को नहीं समझेंगे, प्रेम को समझ पाना व कर पाना बेमानी ही होगा।

जरा रुक कर समझिए। इस नश्वर संसार में आप ज्यादातर जो भी बुरा देखते हैं, उसका लेना देना शायद इसी बात से है की हम सब लोग सब्जेक्ट यानी सेल्फ, या यूं कह लें कि सही कर्ताभाव को समझ नही पाते और इसीलिए चारो और सिर्फ हिपोक्रिसी और सिनिसिजम दिखता है। इसलिए गीता का महत्व है, सिर्फ एक विशुद्ध धर्मग्रंथ की तरह ही नहीं, बल्कि एक बेहद समृद्ध वैचारिक परंपरा की तरह भी। इसके महत्व को समझ पाना बेहद मुश्किल है- गीता भी और साइन्स का डेफिनीशन भी। कोशिश करता हूं।

एक छोटा सा मेटाफर है जो प्रेम के संदर्भ में अक्सर इस्तेमाल होता है। एक मधुमक्खी उड़ रही है, उसको एक फूल दिखता है और वो उस फूल पर उतर कर उसका रस पीने लगता है। जो भाषा हम सबने सीखी है, उसके हिसाब से, मधुमक्खी सब्जेक्ट है, फूल आब्जेक्ट है और रस पीना क्रिया है। साइन्स का अप्रोच अलग है, यही लगभग गीता भी कहती है।

साइंटिफिक हाइपोथेसिस है कि फूल में जो खुशबू और रंग है, वो सब्जेक्ट है क्यूं कि इसी ने एक्शन के लिए एनर्जी डाइरेक्ट की है। और, मधुमक्खी आब्जेक्ट है क्यूं कि एक्शन उसी पर हो रहा है। मधुमक्खी का उस फूल पर उतरने का निर्णय क्रिया है क्यूं कि कान्शियस या इनट्यूटिव वैल्यू-समेशन, या कह लें कि निर्णय ही असली एक्शन है।

इस साइंटिफिक हाइपोथेसिस के पीछे जो पेरेंट हाइपोथेसिस है, वो है माइंड का अपना मेकेनिजम । साइन्स अब जानता है की माइंड एक एक्शनेबल एंटिटी है और वो जो वैल्यू-समेशन करता है, यानि निर्णय लेता है, वही कर्म है। और ये कर्म करने के लिए जो इनपुट फीड है, वही सब्जेक्ट है, क्यूं कि एक्शन के लिए वही गाइडिंग एनर्जी है। यहीं पर चेतना को समझने की जरुरत सामने आती है। जिस माईंड-मेकेनिज्म की वजह से चेतना प्रारूप पाती है, यह अभी तक विज्ञान पूरी तरह भले नहीं समझ पाया हो मगर, जितना समझा जा चुका है, वह सबको जानना चाहिए, क्यूं कि तब ही रियल सब्जेक्ट यानि कर्ता को समझा जा सकता है।

गीता में सब्जेक्ट का, यानि कर्ता और कर्ता-भाव का यही इंटरप्रेटेशन दिखता है। गीता इंसान के शरीर को सब्जेक्ट नही मानता। वो तो आब्जेक्ट है जिस पर सारी क्रियाएं हो रही हैं। सब्जेक्ट या कर्ता है वो मेटीरियल-इमोशनल-इंटेलक्चुयल इनपुट्स जो एक्शन के लिए प्रांम्प्ट यानि उत्प्रेरित करते हैं। और तब ये कहा गया है कि जो भी कर्म करना, वह अकर्ता भाव से करना। यानि रियल सब्जेक्ट और आब्जेक्ट में अंतर समझ पाना। यही द्वंद है...!

गीता में कहा गया है, जीवन नश्वर है पर मिथ्या नही है। यानी, आब्जेक्ट नश्वर है मगर सब्जेक्ट रियल और अनाश्वान है। अनाशक्त होना है, विरक्त नहीं होना है। यानी, जो रियल सब्जेक्ट है, उस से डिटैच्ड हो सकते हैं मगर उसको किल नही कर सकते। यह अपने आप में विचित्र द्वंद्व जैसा ही लगता है। इस द्वंद्व से पार पाने के लिए चेतना के वैज्ञानिक समझ को जानने की जरुरत है।

गीता में सबसे मजेदार और लाजवाब अवधारणा है सब्जेक्ट को समझ कर आब्जेक्टिविटी को जीना। इसका मेटाफर दिया गया है लीला के रूप में। कृष्ण शायद इसलिए भी सबसे उत्तम डिविनिटी मेटाफर हैं क्यूं कि उनका स्वरूप इंसानों के लिए प्रैक्टिकली आइडियल है। वे ईश्वर जैसे नही हैं, इंसानों जैसे हैं और ईश्वर स्वरूप हैं। उनमें ईश्वर तत्व और साथ ही प्रेमतत्व की भी अनुपम व्याख्या है। उनका जीवन और दर्शन सम्मिलित रूप में इसी लीला भाव की व्याख्या करता है। प्रेम के लिए और इसकी संपूर्णता के लिए लीला भाव को समझना बेहद जरूरी है।

लीला एक तरह से सेतु यानी ब्रिज का मेटाफर है। यानी, आप हैं भी मगर नही भी हैं। होने और ना होने का मध्य-भाव है लीला जो ब्रिज की तरह दोनो छोरों को जोड़ती है। आप करते भी हैं मगर करने के रिजल्ट और असर से प्रभावित नही होते। सबसे बड़ी बात कि आप समझ चुके होते हैं कि ये जो आपका शरीर है, जो सेल्फ का ईगोयिस्टिक भाव है, वो सिर्फ आब्जेक्ट है और सब्जेक्ट कुछ और है। तब आप लीला के लिए वो आब्जेक्टिविटी पा जाते हैं जिसको सत्-चित-आनंद यानी, आब्सेल्यूट एक्जिसटेंस, आब्सेल्यूट कांसयसनेस और आब्सेल्यूट ब्लिस के मेटाफर के रूप में प्रतिष्ठा मिली है।

उदाहरण के लिए, कोई मुझे बहुत बहुत प्रेम करता है और मैं बेहद खुश होता हूं। मेरी माइंड ट्रैनिंग ऐसी है कि मुझे लगता है कोई मुझे प्यार कर रहा है। यहां मैं अपने ईगोयिस्टिक और सब्जेक्टिव सेल्फ को सब्जेक्ट मान लेता है और खुश होता है। कुछ दिनों के बाद वही इंसान मुझसे नफरत करने लगता है या प्रेम नही करता और नफरत भी इतनी जितना प्रेम किया था। मैं बहुत दुखी हो जाता है।

अब अगर, ‘मैं’लीला भाव में है तो ‘मैं’हूं ही नहीं। खुद को, अपने सेल्फ को सब्जेक्ट नही समझ रहा हूं बल्कि आब्जेक्ट मान रहा हूं। जो इंसान मुझसे प्यार करता था, वो सब्जेक्ट को नही आब्जेक्ट को प्यार कर रहा था। ये आब्जेक्ट उस वक्त उसके उस प्यार की एनर्जी का कर्म या क्रिया था। सब्जेक्ट तो जैसा पहले था, अब भी है। मूल सब्जेक्ट है किसी भी इंसान का प्रेम करने का माईंड मैकेजिज्म । वह मेकेनिज्म पहले भी था, अब भी है, हां आब्जेक्ट के परस्पर कर्म की स्थिति भले ही बदल गयी हो।

मधुमक्खी को फूल से प्रेम होता तो वह रस चूसने के बाद उड़ कर दूसरे फूल पर नही जाता। मधुमक्खी का सब्जेक्ट फूल नही था। उसका रस था। जब चूस लिया वहां फिर क्या ठहरना। फूल का सुगंध-रंग जैसा पहले था, अब भी है। असल में, रस भी सब्जेक्ट नही है, सब्जेक्ट है मधुमक्खी का रस के प्रति रस। यह उस जीव का माईंड मेकेनिज्म है। कान्शियस या इनट्यूटिव वैल्यू-समेशन, या कह लें कि निर्णय का जो माईंड-मेकेनिज्म है, जिसकी पैदा की गई रस से प्रेम का कर्म निर्धारित होता है, वह सनातन है।

यही रियल सब्जेक्ट है प्रेम का। प्रेम के आब्जेक्ट बदलते रहे हैं और बदलते रहेंगे। ये आब्जेक्ट नाशवान हैं मगर प्रेम का रियल सब्जेक्ट अनाशवान था और हमेशा रहेगा। गीता सब्जेक्ट और आब्जेक्ट के भाव को समझने की बात ही तो करता है। जो लीला भाव में होंगे, वो तब भी मुस्कुरायेंगे जब कोई प्रेम करेगा और उस वक्त भी जब कोई नफरत करेगा या प्रेम नही करेगा। बल्कि, थोड़ा और स्माइल करेंगे।

जो लीला भाव में हैं, उनके लिए ये माया संसार एक लैबोरेटरी जैसा है जहां वो आब्जेक्टिविटी से खड़े होते हैं। जो जैसा सब्जेक्ट बन पड़ता है, वैसा कर्म या क्रिया निर्धारित करते हैं। इस से भी खुशगवार है लीला करते रहना, जैसा कृष्ण करते थे। सब कुछ जान समझ कर भी माया संसार के लैबोरेटरी में एक्सपेरिमेंट और एक्सपीरियंस के लिए लीला भाव से सारे कर्म करना। यही सुख है। सत्-चित-आनंद का यही अनाशवान परम पद है। जब ये हासिल हो जाये, पूरे वजूद से सिर्फ एक ही रस बरसता है... शुद्ध प्रेम व करुणा का रस... जो इस रस में भीग सके, भीग ले...

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सफलता व सार्थकता को समग्र बना पाये तो सुख व्यापक व दुख सीमित हो पायेगा

संभवतः, पांच हजार साल पहले हमारे पूर्वजों को एक ऐसा प्राकृतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक परिवेश एवं माहौल उपलब्ध हो सका, जो उच्च व आदर्श आत्मचिंतन तथा आत्ममंथन के लिए बेहद अनुकूल था। ऐसे ही कालक्रम में भारत में योग-दर्शन की पूरी व्यापक प्रणाली व प्रक्रिया विकसित हो सकी। आज हम सब योग क्रिया के बारे में तो बहुत कुछ जानते हैं, मगर योग-दर्शन की बेहद जरूरी तत्वों की जानकारी बहुत कम है। इसके जान लेने से जीवन बेहद सहज-सरल व सुखद बन सकता है।

हमारे दिग्गज पूर्वजों ने हमें सावधान किया है कि योग-दर्शन को जाने बिना एवं उसके मूल चिंतन को आत्मसात किये बिना योग-क्रिया का लाभ सिर्फ आधा-अधूरा ही मिल पाता है। योग-दर्शन में जो मूल चिंतन है, वह आज के परिवेश में युवाओं के लिए बेहद लाभकारी है। और, सबसे अहम बात यह है कि योग-दर्शन का यह मूल तत्व, बेहद वैज्ञानिक है और सुखी-संपंन जीवन के लिए मूलभूत भी है।

योग-दर्शन में पांच

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