यूं ही बेसबब by Santosh Jha (best novels for teenagers .txt) 📕
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- Author: Santosh Jha
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तो क्या सच में है ऐसा कोई जादूई पुल या जुड़ाव-तत्व जो दो लोगों को आपस में जोड़ता है? क्या ऐसा संभव है कि दो लोग, या संसार के दो जुदा अस्तित्व आपस में किसी अनदेखे डोर या तार से जुड़े हो सकते हैं?
शायद आप लोगों में से बहुत को यह पता होगा कि धर्म-आध्यात्म में जितनी अवधारणाएं मात्र हाइपोथेसिस या परिकल्पना के बल पर मान्यता पा जाती हैं, उतनी ही शायद विज्ञान में भी। वैज्ञानिक जब ब्लैक होल के बारे में बात करते हैं या यूनीवर्स के गूढ़ सिद्धांतों की बात करते हैं तो मूल आधार अकसर कुछ ऐसे हाइपोथेसिस या परिकल्पनाएं होती हैं जिनको साबति कर पाना हमेशा ही दूभर रहेगा। इसलिए, इस मामले में भी अगर कुछ हाइपोथेसिस या परिकल्पना के आधार पर कोई अवधारणा प्रतिपादित की जाये तो बुरा क्या है! कम से कम दिल को कुछ सुकून ही आ जाये!
हम सब को पता है कि जब भी यह बात चलती है कि महिलायें फलां तरह का व्यवहार क्यों करती हैं या पुरुष इस तरह से क्यों सोचते हैं तो वैज्ञानिक कहते हैं कि 5000-7000 साल पहले के हालातों की वजह से ऐसी विशिष्ट सोच या व्यवहार बनी है। यानि, आज से पांच हजार साल पहले के माहौल की वजह से हम इंसानों के जेनेटिक तत्वों या जेनेटिक मेकअप में कुछ ऐसा गढ़ा गया, जो आज इतने सालों बाद भी किसी भी आम स्त्री या पुरुष के व्यवहार व सोच को प्रभावित कर रहा है। तो, कहीं न कहीं एक अदृश्य सेतु तो है! क्या यह सेतु जेनेटिक तत्वों, यानि जीन का है। या कहीं न कहीं हमारे दिमाग के अंदर एक जेनेटिक काउजैलिटी बनती है जो अदृश्य भले ही हो हमारे लिए मगर उसका फिजिकल वजूद है!
अब इसका भी जिक्र करें कि कैसे किसी बच्चे को अपने पिछले जन्म की बातें याद आ जाती हैं, जो समय के साथ खत्म हो जाती हैं। दुनिया के सबसे बड़े व सार्थक शोध से यह बात सामने आती है कि संभवतः इसका पुनर्जन्म से कोई लेना देना न हो बल्कि यह एक जेनेटिक-ब्रिज है जो किसी समय काल के माहौल को किसी के दिमागी जेनेटिक मैकेनिज्म से जोड़ देता है। जैसे 5000 सालों पहले की सोच व व्यवहार आज स्पष्ट दिख जाती है, वैसे ही कुछ सालों या दशकों पहले का इतिहास कहीं किसी रूप में सामने आ जाता है! जेनेटिक तत्व हैं तो मूलतः सूचनाओं के संप्रेषण के माध्यम ही। यह हाइपोथेसिस या परिकल्पना हो सकती है मगर इसे मान लेने से विज्ञान के मार्डन स्वरूप को बल मिलता है।
तो, बात यहां आ कर रुकती है कि फिजिक्स या बायलजी के कुछ अनसुलझे सिद्धांत शायद आज से सैकड़ों सालों के बाद माने जा सकें कि एक ऐसा कोई मूर्त सेतु या पुल है जो दो जुदा अस्तित्वों को आपस में जोड़ता है, जो हमें दिखता नहीं और महसूस नहीं होता। वैसे, बहुत से लोग हैं जिन्हें बेहद भरोसा है कि सबसे सबके तार जुड़े होते हैं, भले ही वे तार कभी अपना काम करते हैं, कभी नहीं भी करते।
एक बड़ा तबका है इंसानों का जो बेहद आश्वस्त है कि दो लोगों के बीच जुड़ाव का एक ऐसा तार व सेतु होता है जो न सिर्फ जोड़ता है बल्कि जीवन भर बांधे रहता है। ये तबका इंसानों का वह है जो प्यार करता है, टूट कर प्यार करता है, प्रेम व करुणा की सार्थकता को जीता है और उसकी कसमें खाता है। जो प्रेम करता है, इंसान से, प्रकृति से, सृष्टि के हर शय से, उसको हर चीज स्वयं से और एक दूसरे से जुड़ी ही मालूम होती है। यह जेनेटिक तत्वों की कामनैलिटी हो सकती है।
अब यह कहना बेहद कठिन है कि प्रेम का जेनेटिक-तत्वों से कैसा जुड़ाव है। चलिए, कोई हाइपोथेसिस या परिकल्पना का सहारा लेकर इसे मान लेते हैं। किसने भला अपने जीवन में सच्चा प्रेम नहीं किया होगा? ऐसा भला कौन है जिसे कभी न कभी ऐसा भरोसा नहीं हुआ होगा कि उसके दिलो-दिमाग के तार एक ऐसे शख्स से जुड़े हैं जो उसे अपने जीवन से भी ज्यादा प्रिय और जरूरी लगता है?
तो, मसला यह हुआ कि कोई पुल है या नहीं, इसकी बात ही क्यूं की जाये। जब सबको प्रेम, प्यार, इश्क का कामयाब जुड़ाव बेहद सहज-सरल-सुगम रूप में ऐसे ही मिला हुआ है तो किसी जेनेटिक ब्रिज की जरूरत किसे है। वह जो है, जो भले बाहर दिखता है, भले ही उसका फिजिकल स्वरूप खुद से जुदा दिखता है, वह मूलतः होता तो दिमाग के अंदर बसा हुआ। वह जो प्रेम का आदि-अंत है, वह बसा तो दिल में ही है, तो भला किसी तार व सेतु की जरूरत कहां है उससे जुड़ाव रखने का?
तो कुल जमा मुद्दा इतना ही है कि बस प्रेममय बने रहिए, इस खुशनुमेंपन के अहसास को अपने वजूद और माहौल का मूल तत्व बने रहने दीजिये। फिर देखिये, कितने ही जुड़ावों का सिलसिला बनता जाता है। कितने ही तार जुड़ते जाते हैं। कितने ही पुल बनते जाते हैं। यही तो है जीवन की लाजवाब इंजीनियरिंग जिसे कनेक्ट बनाने की महारत लाखों सालों से हासिल है...!
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तो इसलिए लोग इश्क को बला, आफते-जां कहते हैं और यह डुबो देती है?
अपना वजूद ही इस संसार की सबसे बड़ी दुविधा एवं विस्मयकारी पहेली है। कभी भी, किसी सूरत, इस मैं-बोध से बच कर कोई राह चल पड़ने की जुगत नहीं बन पाती। लेकिन, ऐसा नहीं कि अपने वजूद को दरकिनार कर, बेखुदी के रस से खुद को सराबोर नहीं किया जा सकता।
वजूद की जद में रह कर पूर्ण चेतना में जीने का अपना सुख-संतोष है मगर, इस नामुराद मैं की सीमाओं से परे एक बेहद खूबसूरत संसार में कुछ पल अगर मिल पाये, तो समझ आता है कि मैं बोध के दुख व दुविधा से बच पाने का एक रास्ता तो है।
इकबाल साहब ने इसलिए कहा-
अच्छा है दिल के पास रहे पासबाने-अक्ल,
लेकिन कभी-कभी इसे तन्हा भी छोड़ दें।
हो सकता है, इसलिए ही कुछ लोग इश्क को बला, यानि आफत कहते हैं। जिनको अपने वजूद के आगे-पीछे कुछ दिखता नहीं, समझ आता नहीं, उनको इश्क आफत लगे, ऐसा मुनासिब ही है। मगर, यह नामुराद इश्क ही है, जो ना-वजूदगी और बेखुदी के रंग दिखाता है और इस रस से रोम-रोम को सराबोर कर जाता है। अब किसी से यह रंग और रस ना संभले, तो फिर खराबी इश्क में नहीं, वजूद के ही किसी पुर्जे में है।
किसी शायर ने कहा-
अपने रिश्ते की नजाकत का भरम रख लेना,
मैं तो आशिक हूं, दिवाना ना बनाना मुझको।
तो मामला यह कि इश्क आशिकी के रंग और रस के लिए है। कोई इसे दिवानगी का नाम दे, उस पर उतर आये, या उतारू हो जाये तो दोष इश्क का नहीं, वजूद की अपनी कारस्तानियों का है। इश्क तो वजूद को फैलाती है, मैं-बोध की असल पहचान कराती है, स्व-बोध को परिमार्जित व पुनर्परिभाषित करती है। इश्क वजूद के परतों को खोजने का खूबसूरत जरिया है। अपना वजूद आमतौर पर बेहद छिछले परत में पेश आता है। इश्क इसे गहराईयों तक ले जाता है। अब कोई गहरे जा कर डूब जाये, तो दरिया को दोष न दें।
तो एक शायर ने कहा-
है नाखुदा का मेरी तबाही से वास्ता,
मैं जानता हूं नीयते-दरिया बुरी नहीं।
इश्क को जरिया बना कर लुत्फ लेने वाले अगर डूब जायें, दिवानगी पर उतर आयें और अपने वजूद की शैतानियों की सवारी बना डालें, तो फिर इश्क से बड़ी आफत और बला शायद ही कुछ हो। मगर, जो जानते हैं, समझते हैं, उन्हें पता है - इश्क अपने आप में मंजिल है, रास्ता ना बनायें इसे। इश्क अपने आप में सबसे बड़ी खूबसूरती है, वही पूर्णता की मंजिल है।
एक कवि ने कहा-
रात हसीन, ये चांद हसीन, पर सबसे हसीन है तू,
और तूझसे हसीन तेरा प्यार... तूं जाने ना....।
तो कमाल यह है कि इश्क ना-वजूद भी करता है और इश्क वजूद को मुकम्मल भी करता है! यही तो कारण है कि अपना वजूद और इश्क इस संसार की सबसे बड़ी दुविधा एवं विस्मयकारी पहेली है। हम सब अपने वजूद को लेकर ही इस संसार में संघर्ष करते रहते हैं। जीवन का संघर्ष अपने वजूद की पहचान व स्थापना का ही संघर्ष है। मगर, जब इश्क होता है तो समझ में आता है कि वजूद के लिए संघर्ष, वजूद का सिर्फ एक आयाम है। जीवन बहुआयामी है- मल्टीडाइमेंशनल है। और वजूद व जीवन के अन्य आयामों का सुख पाने के लिए उन्हें पहचानना व समझना होता है।
जब हम इश्क से रूबरू होते हैं, तब वजूद व जीवन के सभी अन्य आयाम के दरवाजों के खुलने का मुकाम बन पाता है। यह जो तन्हा सा, बेहद सहमा सा और डूबता-उतरता सा वजूद है - यह जो मैं बोध है, उसका कैसे संसार के हर शय से, सारे दूसरे वजूदों से, हर पत्ता-बूटे से सरोकार बाबस्ता हो जाता है, रिश्तेदारी जुड़ जाती है, आसनाई मुकम्मल होती है और सब में अपने ही वजूद का विस्तार दिख पड़ने लगता है, यह सिर्फ इश्क ही सिखा-समझा सकता है।
इश्क की शायद सबसे खूबसूरत मिसाल भारतीय सभ्यता-संस्कृति से उपजे उस मूलमंत्र में है जो कहता है - वसुधैव कुटुम्बकम, यानि पूरी सृष्टि ही अपना परिवार है। यानि, अपना वजूद और मैं-बोध सृष्टि के हर अंश से जुड़ाव बना पाये, यही जीवन की सुभीच्छा है। अब यह समझना शायद आसान हो पाये कि इश्क में कोई कैसे डूब सकता है और भला इश्क कैसे कोई आफत व बला हो सकती है?
बात बस इतनी सी है, हम प्रेम को, करुणा को, आत्मीयता को, सौहार्द को कोई बाहरी वस्तु व परिकल्पना ना समझें। यह सब हमारे भीतर, यानि अपने ही वजूद की गहराईयों में है। जो वजूद के, मैं बोध की इन गहराईयों में जा कर, परत दर परत अपने वजूद व चेतना के अंशों को देख-समझ पाये, समझिये कि वह आम इंसान नहीं है बल्कि वह सच्चा प्रेमी है। प्रेम के बिना, इश्क के रंग व रस के बिना यह आत्म-अन्वेषण हो ही नहीं सकता।
इस संसार में बहुत दुविधाएं हैं और कोई जवाब नहीं बन पाता इनसे बचने का। एक ही रास्ता है और वह है प्रेम का, सच्चे इश्क का। कोई हमें भला-बुरा कह जाये, बेहद चुभती बात कह जाये तो हम गुस्से में आ ही जाते हैं। मगर अगर प्रेम होगा तो गुस्सा नहीं आयेगा। इश्क ही है जो सिखलाता है कोई भी सही हो सकता है और, किसी के सही हो जाने मात्र से मैं गलत हो जाउं, ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है इस दुनिया में। इसलिए, अगर कोई मुझे गलत भी समझता है, तब भी मैं उससे प्रेम कर सकता हूं क्यों कि, वह भी ठीक है अपनी जगह और मैं भी गलत नहीं अपनी जगह। आज शायद दुविधा या मत-भेद है, मगर अगर प्रेम बरकरार रहा तो देर-सवेर, यह भेद भी मिट जायेगा।
प्रेम है ही चेतना की ऐसी स्थिति जिसमें कोई भी दोष इतना बड़ा नहीं दिखता कि जिसे करुणा के दायरे में ना लाया जा सके। एक बेहद लाजवाब शायरा, परवीन शाकिर ने कहा-
वो कहीं भी गया, लौटा तो मेरे पास आया,
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की...
इश्क हुआ तो करुणा व क्षमा न हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। इंसान सबसे पहले खुद से ही प्रेम करता है, खुद को ही माफ करने की जुगत में रहता है। प्रेम जब यह सिखा देता है कि मैं इतना विस्तारित है कि उसका अंश सब में है, तो अपने अंशों से करुणा कोई भला कैसे न करे। इसलिए ही इश्क मुझसे, आपसे, उनसे, सबसे ज्यादा खूबसूरत होता है!
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ये शहर, वो हवाएं और फिर, इंसान का खुदा हो जाना...!
एक व्यक्ति ने कहा - मैं ईश्वर में विश्वास नहीं रखता, इसलिए जो इंसान खुद को खुदा समझने लगते हैं, उनसे मेरी कोई दुश्मनी नहीं मगर मेरा कोई राबता, यानि लेना-देना नहीं हो सकता...!
अब यह जो बात है, इंसान का खुदा हो जाने वाली, वह कोई नयी तो है नहीं। एक शायर ने बहुत पहले कहा -
कैसी चली है अबके हवा तेरे शहर में,
बंदे भी हो गये हैं खुदा तेरे शहर में...
... तो क्या बात यह है कि कोई हवा है, यानि शायद, कोई कल्चरल प्रक्रिया होती है समाज में,
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