यूं ही बेसबब by Santosh Jha (best novels for teenagers .txt) 📕
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- Author: Santosh Jha
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ऐसा कहना, सिर्फ एक पहलू मात्र की ही चर्चा भर है, वजहें कई हो सकती हैं, शायद!
यहां बातें दो है -
यह इंसानों का खुदा हो जाना क्या होता है और यह कैसे हो पाता है?
यूं तो खुदा जैसा हो जाना हर इंसान की सबसे बेहतरीन मंजिल है मगर यह किस तरह का खुदा होना है जिससे आम इंसान को ऐतराज या सख्त परहेज हो जाता है?
कुछ तो बात समझ में आती है कि कुछ लोग अपने को भीड़ से अलग दिखाने के लिए कुछ विचित्र ऐटीट्यूड डेवलप कर लेते हैं और ऐसा दिखाते हैं कि जैसे वे ही हर ज्ञान के लास्ट वर्ड हों। मगर यह बात थोड़ी मुश्किल प्रतीत होती है कि कोई यह तय कर पाये कि समाज में, संस्कृति में ऐसा क्या हो जाता है, ऐसे कौन से तत्व विकसित हो जाते हैं कि कुछ इंसान अपने को खुदा समझने का मुगालता पाल लेते हैं? है कि नहीं...
अब देखिये, मनोवैज्ञानिक भी अजीब होते हैं, उनके पास हर मर्ज की दवा ना भी हो, हर मर्ज की व्याख्या करने की मानो फितरतन कैफियत होती है, काबिलियत हो न हो, यह अल्हदा मसला है। उनका मानना है कि आजकल के आधुनिक परिवेश में दो बातें हो रही हैं -
इस पृथ्वी पर इतने ज्यादा इंसान हो गये हैं कि आम इंसान के लिए जीना भी एक बड़ा चैलेंज हो गया है। इसलिए, इस जानलेवा प्रतिस्पर्धा में हमेशा आगे बने रहने के लिए कई लोग हाई ऐटीट्यूड में रहना पसंद करते हैं, जिसका मूल सिद्धांत है - खुद को सही साबित करने के लिए दूसरों को गलत साबित करते रहो। इसलिए खुदा हो जाना एक तरह से मजबूरी ही है। कम से कम खुदा हो जाने से भीड़ का हिस्सा बनने से तो बच जाता है इंसान!
आम इंसान के लिए आज का वर्तमान बेहद उबाउ व थका देने वाला है। वर्तमान में अमूमन न कोई आनंद है न ही कोई संभावना। इसलिए कई लोग वर्तमान में जीना छोड़ कर भविष्य में जीने लगते हैं। इससे होता यह है कि उनका वर्तमान के यथार्थ से नाता कमजोर पड़ जाता है या पूरी तरह टूट जाता है। और वे एक काल्पनिक संसार में रहने लगते हैं जहां वे खुद को हाई ऐटीट्यूड में रखकर, स्वयं को खुदा या किंग मान कर खुश होते रहते हैं। अब जब इंसान बने रह पाना इतना कठिन हो जाये तो खुदा बनने के अलावा विकल्प क्या है? और फिर इसमें जो मुफ्त का लुत्फ है, उसका तो कोई जवाब ही नहीं है!
खैर, मामला जो भी हो, यह इंसान का खुदा हो जाना है शायद बेहद खूबसूरत एहसास। तभी तो लोग खुदा हो जाने में देर नहीं करते। और शायर लोग भी इस पर शायरी करते हैं, इसका मतलब मामले में दम तो है!
अब, मान लीजिये कि कुछ लोग सावधान करेंगे कि भाई जरा देख के, मगर यहां देखने-समझने के लिए बचा क्या है। नानी तेरी मोरनी को मोर ले गये और बाकी जे बचा ते काले चोर ले गये...!
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चंद सवाल जो अपना सही जवाब तलाशती हैं...
सच में, मुझे यह बिलकुल पता नहीं। किसे पता है, मुझे तो यह भी पता नहीं। मगर कहीं से कोई बतला पाता, यह आरजू है। इसलिये यह पूछ रहा हूं ताकि जिन्हें पता हो, वह जरूर बतायें। या फिर अगर कोई ऐसी कवायद हो रही हो कहीं जिससे आने वाले वक्त में यह पता हो पाये तो यह बेहद खुशगवारी का सबब होगी।
उम्रदराज होने की अपनी एक खूबसूरती है - आपकी यादाश्त आपको उन गलियों व मुकामों तक ले जाती है जहां से आप बरसों पहले निकल आये होते हैं। फिर जब उन यादों को आप आज की हकीकत से रूबरू कराते हैं तो बेहद खुशी होती है। कहा जाता रहा है कि हम जो भारतीय समाज व संस्कृति के लोग हैं, वह हमेशा ही सामाजिक सरोकारों व सांस्कृतिक मूल्यों को अर्थ व व्यक्तिक कामनाओं से बड़ा व बेहतर मानते रहने के कायल रहे हैं। मेरी भी इतनी उम्र हो चली है कि मुझे याद है कि अपने देश में ऐसा 1990 तक दिखता था। फिर उन्मुक्त अर्थव्यवस्था व उदारवादी बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद को देश की प्रगति का मूलमंत्र बनाया गया और इसके बाद आज तक, देश का, राजनीति का, यहां तक कि समाज का भी अब एकमात्र ध्येय है आर्थिक विकास, खासकर अधिक से अधिक उत्पादन ताकि उपभोग बढ़ सके।
जो मूल अवधारण पहले थी, उसका निचोड़ यह था कि अर्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण है व्यवस्था और तंत्र। यानि, अगर समाज-संस्कृति का तंत्र मजबूत व स्वस्थ है तब ही अर्थ का औचित्य व उपयोगिता है। समकलिक सोच की अवधारणा इसके विपरीत दिखती है। ऐसा लगता है मानों यह स्वयंसिद्ध है कि अगर आर्थिक विकास हो जाये, तो बाकि सब व्यवस्थाएं एवं तंत्र खुदबखुद ठीक हो जाते हैं।
हालांकि ऐसा न होता है न हीं होता हुआ दिख रहा है। फिर भी, हमें मानने में कोई हर्ज नहीं। कहा गया है - महाजनों येन गतः स पंथा । यानि बड़े लोग जिस राह चलें वही सही राह है। तो इसे ही सही मान कर चलें। और इसी अवधारणा को सच मान कर के ही कुछ जरूरी सवाल बन पड़ रहे हैं, जिनके जवाब तलाश रहा हूं। ये चंद सवाल हैं -
अगर समाज में, गांव से लेकर बड़े शहरों तक, हर महिला को सिर्फ सुरक्षित माहौल दिया जा सके। अपने प्रशासनिक तंत्र पर वाजिब खर्च करके उसे इस योग्य बना दिया जाये कि वह महिलाओं को निर्भय मोबिलिटी, सेक्योरिटी व फास्ट जस्टिस दे पाये तो इस सामाजिक निवेश की वजह से देश की जीडीपी, यानि सकल घरेलू उत्पाद में कितने प्रतिशत की वृद्धि होगी? ऐसा कोई आंकलन है क्या? क्या कोई अधिकारिक डाटा, रिसर्च या थियोरी है क्या? पता नहीं क्यों, मुझे ही नहीं, मेरे जैसे कई आम इंसान को लगता है कि महिलाओं पर यह निवेश अर्थ तंत्र में किये गये किसी भी निवेश से बेहतर व त्वरित विकास दे पायेंगे। ऐसा पता नहीं क्यों लगता है कि वास्तविकता में असली मेक इन इंडिया का सही धरातल हमारी महिलायें ही हैं। अगर हम उन्हें अपने ही देश में निर्भय कर पाये तो देश ही यह आधी आबादी हमारे विकास दर को वैसे ही दोगुणा कर देंगी।
सालों पहले, एक सरकारी रिपोर्ट में यह बात आयी थी कि ज्यादातर लोग, जो अपने व सरकारी प्रयासों से गरीबी रेखा के उपर आ भी जाते हैं, वे फिर कुछ दिनों बाद और भी भीषण गरीबी के दलदल में फंस जाते हैं और इसके पीछे सबसे बड़ा कारण होता है परिवार में किसी के, खासकर कमाने वाले व्यक्ति का बीमारी की वजह से कर्ज में दब जाना। क्या ऐसा कोई आंकलन, कोई अधिकारिक डाटा, रिसर्च या थियोरी है जो बता सके कि अपने देश की अमीर या गरीब आबादी को अगर बेहतर व सस्ती स्वास्थ्य सुविधाएं मिल पायें तो देश का जीडीपी कितने प्रतिशत बढ़ जायेगा? अपने स्वास्थ्य तंत्र पर अगर वाजिब निवेश करके उसे इस योग्य बना दिया जाये कि वह सबको सस्ती, त्वरित एवं बेहतर हेल्थ डिलिवरी कर सके तो क्या कोई ऐसा आंकलन है कि हमारा अर्थतंत्र कितना और मजबूत हो जायेगा। ऐसा पता नहीं क्यों लगता है कि वास्तविकता में असली मेक इन इंडिया का सही धरातल हमारी अपनी गरीब आबादी ही है जिसके प्रजनन स्वास्थ्य से लेकर जीवन स्वास्थ्य तक की नाकाम जंग में अर्थतंत्र का कितना नुकसान होता है। अगर हम अपने ही देश के लोगों को अपने स्वास्थ्य को लेकर निर्भय कर पाये तो हमारे देश का विकास दर वैसे ही दोगुणा हो जाये।
सवाल तो कई हैं। पता नहीं किसके पास सही जवाब हैं। या शायद बुहत से ऐसे सवाल हैं जिनका कोई औचित्य ही नहीं, इसलिये जवाब का सवाल ही नहीं होता...!
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अच्छे बुरे के फर्क ने बस्ती उजाड़ दी
कांसेनसियसनेस, यानि सही-गलत के फर्क की तहजीब। यह भावना शसक्त और महत्वपूर्ण है। इंसान जब सभ्य समाज में रहता है तो उसकी सबसे बड़ी पूंजी होती है सही-गलत में फर्क कर सकने की उसकी तहजीब एवं अदब। किसी भी समाज में कांसेनसियसनेस एक बेहद संवेदनशील सांस्कृतिक मसला है। हर संस्कृति की अपनी सही-गलत की परिभाषा व पहचान है। इसकी शुरुआत भाषा-जुबान से होती है और इंसान के हर व्यवहार और कर्म में इसकी स्पष्ट छवि दिखनी चाहिए।
पहले धर्म और आस्था के आधार पर सही-गलत की तहजीब थी। आज धर्म और आस्था के नाम पर ही सबसे ज्यादा जुल्म-अत्याचार और भ्रष्टाचार हो रहा है। मार्डन समाज में कानून और प्रजातांत्रिक जीवन मूल्यों के आधार पर सही-गलत का फर्क होता है मगर आज कानून को भी लोगों ने, खासकर वर्चस्व वाले लोगों ने अपना गुलाम बना लिया है। न्याय तंत्र की समस्याएं जटिल है। भ्रष्टाचार कानून के वजूद को ही मिटाने पर तुला है। स्वार्थ ही सबसे बड़ी तहजीब बन गयी है।
मनुष्य मूलतः एक सामाजिक प्राणी है और उसे हमेशा अपने समाज से मान्यता की चाह रहती है। मगर, जब समाज ही गलत को सही और सही को गलत बताने लगे तब नर्क धरती पर उतर आता है। आज जो समस्या है वह यही है। अपने स्वार्थ के लिए हर स्थापित मानक को तोड़ा गया और नये मानकों को कभी स्थापित ही नहीं होने दिया गया। समाज ही भ्रष्टाचार को सही करार देने लगा है और जो जितना भ्रष्ट हो, वही वर्चस्व पा जा रहा है। यह बेहद खतरनाक कल्चरल इवोल्यूशन है।
आज के मार्डन समाज में संस्कृति की सबसे अहम चुनौती है यह तत्व - कांसेनसियसनेस। कोई भी संस्कृति सफल तभी मानी जाती है जब सही-गलत को लेकर एक व्यापक मान्य सामाजिक माहौल हो। कहा जाता है कि इंसानों में अच्छाई जब आटो-बिहेवियर हो जाये, तब समझा जाना चाहिए कि उस समाज का बेहतर सांस्कृतिक विकास हुआ है। आटो-बिहेवियर, यानि किसी को अच्छे-बुरे के बीच फर्क को मनवाने के लिए कोई प्रयास व सोच न लगानी पड़े और वह स्वतःस्फूर्त हो जाये, तो समझिये कि समाज व संस्कृति उम्दा है।
यह आत्मचिंतन का विषय है कि हमारे समाज में सही-गलत की तहजीब किस हद तक आटो-बिहेवियर के तहत होती है। पूरे भारत में, मां-बाप युवाओं को बारहा समझाते हैं कि दोपहिया वाहन चलाते वक्त हेलमेट पहना करें। वे सुनते नहीं। पुलिस अक्सर चेकिंग प्वाईंट्स बना कर चालान करती है। जब पुलिस बिना हेलमेट पकड़ती है तब युवा पुलिस से ही उलझते हैं और यहां तक कि गलती मानने के बदले अपनी साख का हवाला देकर उन्हें सस्पेंड करा देने की धमकी देते हैं।
विश्व में हर घंटे, 40 लोग, जो 25 साल से कम उम्र के होते हैं, सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं। तो स्थिति आज समाज की ऐसी हो गई है कि देश व प्रशासन को अपने युवाओं को जिंदा रखने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती है, जो मूलतः हर इंसान का पहला कर्तव्य है। अपनी जान देने की जिद को भी युवा सही मानते हैं और न्यायतंत्र से इसके लिए उलझते हैं।
अपने देश की कितनी प्रतिशत आबादी सड़कों पर ही थूकती है, यह कोई छुपा तथ्य नहीं है। आज खुले में शौच करने के खिलाफ दश भर में मुहिम चलाई जा रही है, जिसे स्वक्षता अभियान के तहत किया जा रहा है। मगर खुले में थूकना, खुले में शौच करने से ज्यादा खतरनाक है स्वास्थ्य के लिए। सवाल है, निजी गुणों को अपनाने के लिए आज व्यक्ति, समाज व परिवार कोई जिम्मेदारी नहीं ले रहा, सबकुछ सरकार व प्रशासन के जिम्मे देकर हमसब चैन की बांसुरी बजाते हैं। और अगर सरकारें कड़ाई करे, तो उसे अगली बार वोट न देने की जिद ले बैठते हैं। क्यों?
सवाल दोषारोपण का नहीं है, बल्कि शुद्ध आत्मचिंतन का है। गांधी जी ने इस बात पर बहुत जोर दिया था। उन्हें पता था कि किसी भी समाज में सिर्फ कानून का भय दिखा कर सही-गलत में फर्क नहीं स्थापित करवाया जा सकता। वे आत्मसंयम, आत्मनियंत्रण एवं इसी आटो-बिहेवियर की बात करते थे।
इसलिए ही उन्होंने कहा था कि राजनीति से ज्यादा आजाद भारत को सांस्कृतिक विकास की चुनौती झेलनी पड़ेगी। उन्होंने कांग्रेस को एक सामाजिक संस्था के तौर पर काम करने की सलाह दी थी। वे बेहद सही थे।
आजादी के बाद आर्थिक चुनौती जितनी ही जटिल व गंभीर थी देश के समाज का सांस्कृतिक विकास। साठ सालों से सांस्कृतिक विकास अपने देश में अवरुद्ध है। अगर जो हुआ भी है तो वह ऐक्सिडेंटल है, यानि हो गया है, किसी योजनाबद्ध तरीके से नहीं
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