यूं ही बेसबब by Santosh Jha (best novels for teenagers .txt) 📕
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- Author: Santosh Jha
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यह जो Dualism है, वही क्लेश की एनर्जी है। जो भोग की एनर्जी व प्रवाह है, वही प्रकृति के अनाशवान होने की वजह से अभोग व वैराग्य की ओर प्रवृत करता है। चित्त की यही वृत्ति है... यही मायाचक्र है...
कहा गया है - योगी कौन है? ज्ञानी कौन है? योगी व ज्ञानी वही है जो चित्त की संरचना को समझता है, वृत्तियों के प्रवाह को समझता है, इनसे उपजे कर्माशय के मायाजाल को समझता है। जो मर्मज्ञ है, यानि जो पुरुष-प्रकृति-प्रवाह की कर्मशीलता को भेद पाता है, जो अपनी चेतना को शिवभाव में, यानि आदिभाव में निहित कर, प्रकृति व चित्त के तत्वों व उनके आपसी संबंधों से उपर उठ कर सर्वथा कैवल्यावस्था में स्वयं को अवस्थित कर पाता है, वही योगी है, वही ज्ञानी है, वही शिव है। उसे ही सत् चित् आनंद की प्राप्ति होती है। यही सच्चा कर्म है।
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पुरुष को किससे डर लगता है - भूत, भगवान और भार्या...!
किसी ने यह बात मजाक में कही, मगर कहना मुश्किल है कि यह सच्चाई के कितनी करीब है। कहा गया है कि पुरुष सिर्फ तीन चीजों से डरते हैं - भूत, भगवान और भार्या...!
... हे भगवान...! कहते हैं, हर हास्य, जीवन के जटिलतम यथार्थ से ही सृजित होता है...! लेकिन, हम इस विषय पर बात नहीं करेंगे। हां, बेहद आब्जेक्टिव हो कर अगर जांचा-परखा जाये, तो यह बात तो स्पष्ट दिखती है कि पुरुष ही नहीं, हर इंसान ज्यादातर उससे डरता है जो इंटैंजेबल है, यानि अमूर्त है, मिस्टिकल है और जिसे इंसान, खासकर पुरुष समझने की कोशिश ही नहीं करना चाहते।
खैर, हम इस पर बात नहीं करेंगे। बात यह की जाये कि आखिर किस बात से पुरुष सबसे ज्यादा डरते हैं और इस डर के पीछे मूल वजह क्या है। इस पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण है और इसी की चर्चा हम करेंगे।
शोध से स्पष्ट हुआ है कि आम पुरुष जिन बातों से डरते हैं, वे हैं - क्या मैं ठीकठाक दिखता हूं? कहीं मैं बूढ़ा तो नहीं दिखता? क्या मैं अच्छा कमा लेता हूं? क्या मैंने जीवन में सही मुकाम पाया है? क्या मेरी नौकरी रहेगी या छूट जायेगी? क्या मैं अपनी जीवनसंगिनी को संतुष्ट कर पाता हूं? क्या मैं अच्छा पिता हूं... आदि।
जरा ठहर कर इन सभी डरों का विश्लेषण करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि ज्यादातर डरों के पीछे जो स्थायी तत्व या अवयव है, वह है महिला। इन डरों के पीछे जो असुरक्षा की भावना है, उसका सरोकार महिला से है। अच्छा दिखना, कमाना, नौकरी, पिता होना, आदि के पीछे जो असुरक्षा है, वह इसलिए है कि इन सभी सवालों के जवाब उस पुरुष के बूते है नहीं, वह है उस महिला के पाले में जो उसकी जिदंगी में है या आने वाली है।
अब जरा इस वैज्ञानिक पहलू पर गौर करें। आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि पुरुष के ज्यादातर डर उसे बर्बाद करने की हद तक चले जाते हैं क्यों कि भले ही उसके डर व असुरक्षा की वजह महिला हो, मगर वह कभी भी इनकी चर्चा अपनी बीबी या प्रेमिका से नहीं करना चाहता। उसका पुरुषार्थ उसे ऐसा करने से रोकता है। वह अपनी समस्याओं व डर का निदान अकेले ही ढूंढ़ना चाहता है, या फिर वह किसी पुरुष मित्र से ही चर्चा करेगा। यहां तक कि आम पुरुष डाक्टर के पास भी नहीं जाना चाहते।
यही समस्या है... अगर वह अपनी पत्नी से शेयर कर ले तो उसे सारे सवालों के जवाब मिल जायेंगे क्यों कि उसके डर व असुरक्षा का कारण एक महिला का ही सही-गलत का चुनाव है। मगर, ऐसा लगता है कि आम पुरुष को महिला से उतना ही डर लगता है जितना कि भूत व भगवान से...! ठीक इसके विपरीत, महिलायें अपनी सारी समस्याएं बेहिचक सबसे साझा करती हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, पत्नी चाह कर भी कुछ खास मदद नहीं कर पाती क्यों कि पति अपनी समस्या शेयर ही नहीं करना चाहता। उसका पुरुषभाव आड़े आता है। इसिलिए, मनोवैज्ञानिक पत्नियों को ताकीद करते हैं कि वे परिवार में और आपस में एक ऐसा माहौल बनाये जिसमें पति खुद को आत्मविश्वास से भरा महसूस कर सके। वे बस इतना ही कर सकती हैं।
... अरे पतिदेव, जब आपकी सारी समस्याओं, डर और असुरक्षा का इलाज ही आपकी प्यारी सी बीबी है, तो भला आप उससे इतना डरते क्यूं हैं। ये पुरुषार्थ भला किस काम का जो आपको भूत और बीबी से डराये...।
बस कीजिए... मासूमियत को गले लगाईये, फिर पत्नी को गले लगाईये और मन की सारी बात कह डालिए... विश्वास कीजिए, भगवान बेहद बिजी रहते हैं, उन्हें बहुत से काम हैं... खास कर अपने करोड़ों मूर्ख भक्तों की नादानियां झेलने में वे बेहद मशरूफ होते हैं... इसलिए वे आपकी बेवजह की समस्या का निदान नहीं कर पायेंगे...! इसके लिए उन्होंने अपना एक एंजेल लगभग हर पुरुष की जिंदगी में भेज रखा है... आप सब उसे हिंदी में बीबी बुलाते हैं... उससे कह डालिये... फिर देखिए, आपको किसी भी शय से डर नहीं लगेगा। अगर लगे भी तो उसके आंचल में छिप कर सो जाने से आपको किसने रोका है भला... है ना...!
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तर्जे-बयां के फरोगे-हुस्न की खुशबू का लुत्फ...
तर्जे-बयां, यानि किसी चीज के बारे में कहने-सुनाने का तरीका... इस तर्जे-बयां का हमारी जिंदगी में और उसके खुशनुमेंपन में बेहद संजीदा रोल है... हम हालांकि आज की तेज जिंदगी में इस तर्जे-बयां की खूबसूरती की खुशबू से लगातार महरूम होते जा रहे हैं... चलिए, थोड़ी बातचीत इसी तर्जे-बयां के फरोगे-हुस्न, यानि इसकी खूबसूरती के जलवे की की जाये।
कहते हैं, हर लफ्ज की संजीदगी, अदायगी की मोहताज होती है... शब्दों के कोई खास तयशुदा मायने-मतलब नहीं होते। अल्फाजों की अभिव्यक्ति, यानि तर्जे-बयां पर निर्भर है कि कहने वाला उसके क्या मायने रखना चाहता है। इसलिये ही, कहा गया कि शब्द संभार बोलिए, शब्द के हाथ न पांव, एक शब्द मरहम करे, एक शब्द करे घाव...।
तर्जे-बयां की हुनरबाजी और इसकी काबिलियत को एक उदाहरण से समझा जाये। कहते हैं, एक बेहद उम्दा शायर अपनी प्रेमिका की एक झलक पाने के लिए बेताब रहते थे और वो बामुश्किल उन्हें दिख पाती थीं।
प्रेमिका भी मजबूर ही रही होंगी और उन्हें भी पता था कि उनके आशिक शायर साहेब किस कदर उनके दीदार के लिए तेज धूप व बारिश में भी खुले आकाश तले उनका इंतजार किया करते थे। लोगों के ताने सुनते थे वो अलग...। फिर शायद एक दिन वे मिले और उनकी कुछ बातचीत हुई हो। बाद में शायद शायर साहेब ने इसका जिक्र करते हुए लिखा -
मर चुक कहीं के तूं गमें-हिज्रां से छूट जाये,
कहते तो हैं भले की लेकिन बुरी तरह...।
... यह शेर बेहद प्रसिद्ध गजल, रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह, अटका कहीं जो आपका दिल भी मेरी तरह का हिस्सा है। इस शेर में शायर ने कहां कि उनकी प्रेमिका ने अच्छा ही कहां कि उनकी खातिर जो वे इतना परेशान रहते हैं, इससे बेहतर कि वे मर ही जायें ताकि वे जुदाई के गम से छूट जायें। मगर, शायर साहेब को अफसोस इसी बात का रहा कि इतनी अच्छी बात, जो उनके भले के लिए ही कही गयी, लेकिन यह बेहद बुरी तरह से उनकी प्रेमिका ने उनसे कही...!
तो कुल मिलाकर वही बात ले दे के तर्जे-बयां की ठहरी... बुरी से बुरी बात भी अगर अच्छे तरीके से कही जाये तो बेहद खुशनुमेंपन का सबब होती है मगर अच्छी बात भी बुरी तरीके से कही जाये तो...! आपको यहां याद दिलाता चलूं कि जो हमने पहले जिक्र किया कि हमारे चचा जान कहते थे कि दुनिया में कुछ अच्छा व बुरा हीं होता। होता है तो सिर्फ सुरीला या बेसुरा।
अब जरा देखिये कि यह साधारण सी बात भी गजल में कितनी खूबसूरती से कही गयी। यही है तर्जे-बयां के फरोगे-हुस्न की खुशबू का लुत्फ! आज, चारों ओर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के लिए सब लड़ते-भिड़ते हैं, मगर कहीं भी इस बात का जिक्र नहीं होता कि तर्जे-बयां के हुनर को निखारा जाना भी इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का एक बेहद जरूरी कर्तव्य है। लफ्जों की लयकारी, शब्दों के आमद की अभिव्यक्ति, अल्फाजों की अदायगी और कहने-सुनाने की गजलकारी का सौन्दर्य क्यों खोते जा रहे हमलोग? सुर के भटकाव की चर्चा क्यूं नहीं होती!
चलिए, इस तर्जे-बयां की काबिलियत को हम सब लोग मिलजुल कर बेहतर करते हैं... खूबसूरत जिंदगी के फरोगे-हुस्न को तर्जे-बयां की खुशगवारी से और भी रोशन करते हैं...
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लर्निंग से ज्यादा महत्वपूर्ण है अनलर्निंग, अर्धज्ञानता से बेहतर है अज्ञानता...
आत्म-अन्वेषण की प्राथमिक कड़ी है व्यक्ति। वैज्ञानिक तथ्य है कि एक स्वस्थ बच्चा जन्म के वक्त इस संसार का सबसे विद्वान व जीनियस होता है मगर अगले दस-पंद्रह सालों में हम, यानि समाज और उसकी रिग्रेशिव संस्कृति उसे नकारा, नालायक और मूर्ख बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
मोटे तौर पर समझे तो एक नवजात बच्चे में व्यस्क इंसान से दोगुणा बेहतर बौद्धिक क्षमता होती है, उसके मस्तिष्क की संरचना के कारण। मगर, उसका दिमाग सही-गलत के फर्क को नहीं समझता। सही-गलत का फर्क एक निहायत सांस्कृतिक मसला है। इसलिए, हर इंसान की यह पहली जिम्मेदारी है कि वह जब व्यस्क हो तो आत्म-अन्वेषण करे और समाज-संस्कृति तथा परिवार-स्वजनों से जो अच्छा सीखा उसे रखे और जो बुरा सीखा, उसे खत्म करे।
समय के साथ सही-गलत की पहचान भी बदलती है अतः, यह प्रक्रिया जरूरी है और अनवरत चलती रहनी चाहिए।
आत्म-अन्वेषण की प्रक्रिया जीवनभर चलने वाला सिलसिला है जिसमें लर्निंग जितनी ही महत्वपूर्ण भूमिका है अनलर्निंग की। भेदभाव न करना, असहिष्णुता न करना, हिंसा न करना, स्वार्थ से परे होना, आदि, यह सब अनलर्निंग ही है, क्यूंकि ऐसा करना संभवतः हमारी वृत्तियों में है।
साधारणतः, समाज में रह कर हम सब इसका उल्टा ही सीख लेते हैं। बड़े होकर इन गलत सीखों को मिटाना होता है। हम यहां जरूर चर्चा करना चाहेंगे कि अमूमन, हम सब लोगों की यह गलती नहीं कि हम कुछ सीखते नहीं। बल्कि समस्या यह है कि हम सब बेहद उल्टा एवं मूलतः अधकचरा सीख लेते हैं और फिर व्यस्क होने पर उसे अनलर्न करने की बड़ी जरूरत बन पड़ती है। यह कर पाने का हमारे पास वक्त ही नहीं होता क्योंकि जीवन जीने और उसे व्यवस्थित करने में ही हमारी सारी सोच व एनर्जी चली जाती है।
एक प्रसिद्ध लेखक ने कहा है - हम अपना पूरा जीवन जिंदगी जीने की तैयारी में ही लगा देते हैं। जी पाने का वक्त तब बचता ही नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक जीवनशैली में रोजी-रोटी की जद्दोजहद से निकल कर जीवन को एक व्यवस्थित व सुनियोजित मानक के अनुरुप जी पाने की फुर्सत हम सबको कम ही मिल पाती है। यह सही है कि जीवन जीने के लिए ही होता है, ज्ञान पाने के लिए भले न हो। मगर, ज्ञान पाने से जीवन जीने में सुख और संतोष दोनों बढ़ते हैं, इसे मानने में कोई बुराई नहीं।
अतः ज्ञानवान होना वैकल्पिक चयन नहीं है। समझना यह है कि हम सब अधिकांशतः जिस समस्या से जूझते हैं, वह इगनोरेंस या अज्ञानता नहीं है। देखा जाय तो इस संसार में अज्ञानी तो कोई है ही नहीं! अगर अज्ञानता हो भी तो यह बेहद सुखद स्थिति जैसी ही है। समस्या है हमारा अर्धज्ञान, अधकचरा ज्ञान एवं एकपक्षीय ज्ञान से भरा होना तथा उसे ही सत्य मान लेने की अतार्किक जिद। बेहद सहज-सरल सी बात है। अज्ञानी कौन है? वह व्यक्ति जो किसी भी यथार्थ का सिर्फ एक पहलू ही देख पाता है और उसी आधे-अधूरे पहलू को पूर्ण सत्य मान लेने की अपनी जिद को विद्वता का मानक बना लेता है। हमारी भारतीय परंपरा में ऐसा कहा गया है कि ऐसे लोगों की ही बहुतायत है दुनिया में और ऐसे लोगों को स्वयं ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते...!
वास्तव में हमारा समाज ऐसे ही लोगों से भरा पड़ा है। वह इसलिए कि आज विज्ञान समझ पा सका है कि हम इंसानों की चेतना की बनावट ही ऐसी है। स्थापित मानक है कि पार्ट विस्डम से परे जो व्यक्ति किसी भी विषय व मामले को उसकी पूर्णता व होलिज्म में देख सकता है तथा संबंधित सभी मान्यताओं के प्रति रिलेटिविटी व संवेदनशील स्वीकार्यता रखता हो, वही सही मानों में विद्वान है। जो सिर्फ पार्ट देख पाता है और उसे ही पूर्ण सत्य मान कर उसपे अड़े रहने की जिद ठान लेता है, उसे ईश्वर भी नहीं समझा सकता! इसलिए, इंसान होना स्वभाविक है मगर विद्वान होने के
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