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Read book online «यूं ही बेसबब by Santosh Jha (best novels for teenagers .txt) 📕».   Author   -   Santosh Jha



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शब्दों के अमीर मगर अभिव्यक्ति के कंगाल...!

इंडियन क्लासिकल म्यूजिक की वृहद परंपरा में अमीर खुसरो ने ख्याल का अंग जोड़ा। खुसरो शब्दों के शायद सबसे लाजवाब रंगरेज हुए अब तक। कबीर जैसे ही, उनको भाव के एक्सप्रेशन की ऐसी समझ थी जो ह्युमैनिटी के लिए ट्रेजर है।

ख्याल गायकी की विचित्र खूबसूरती है। एक ही ख्याल, यानी आइडिया या इमोशन को 45-50 मिनिट्स तक इतने अलग-अलग अंदाज में इस तरह बयान किया जाता है की पूरा वजूद ही पिघल कर कासमिक एनर्जी का हिस्सा बन जाता है। शब्द भावों के मोहताज होते हैं, इसलिए ही अदायगी का इतना महत्व है। शब्द सिर्फ भजन बनाते हैं। इनसे आराधना नही होती। ये होती है भावों की अभिव्यक्ति से। अदायगी के रंगों और खुशबू से। भावों के संगीत और नृत्य से...

आम इंसान, शायद 99 प्रतिशत लोग, शब्दों के मामले में कितने भी अमीर हों, एक्सप्रेशन के मामले में बेहद कंगाल होते हैं। संभवतः कंजूस भी। ह्युमैनिटी के लिए कितने ही भाव ऐसे हैं जिनको इंसान चाहे तो एक उमर बयान करता रहे और ये सिलसिला खत्म ना हो। मगर, अपनी ही औकात लोगों की इतनी भिखारी जैसी होती है कि अंदाजे-बयां भी लोग उधार मांगते नजर आते हैं...

दरअसल, जो सबसे महत्वपूर्ण हुनर है, इंसानियत के लिए, वही हुनर लोग सीखते नहीं। तमाम उमर, रोजी-रोटी और काम-काज के स्किल्स सीखते रह जाते हैं। और फिर घबराहट में ही उमर कटती रहती है। बच्चा जन्म लेता है तब से ही उसके अंदर संगीत और नृत्य चलता रहता है। इसलिए बच्चे सबको प्यारे होते हैं। चाहता हर इंसान है कि वो कितना भी बड़ा हो जाए, खुश वो बच्चों की तरह ही रहे। मगर, अपनी इस चाहत से ठीक विरोधाभासी कर्म करते रह जाते हैं उमर भर। जब अंदर के संगीत और नृत्य का सालों पहले अपने ही हाथों से खून कर दिया तब चाह कर भी बच्चों जैसा खुशनुमांपन कैसे आ पाएगा।

कभी रियाज किया नहीं। ना जीवन-संगीत साधा ना जीवन-नृत्य साधा। रहे उमर भर इसकी टोपी उसके सर करते। तीन का पांच करते रहने का रियाज खूब किया। और फिर ये शिकायत कि जीवन में कोई रस और रंग ही नहीं। अब भी कुछ बिगड़ा नही होशे-तम्माना कीजिए। घर में मुन्ना गाए है उसको निहारा कीजिए...

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थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है...

यहां एक उम्दा और बेहद रेलिवेंट सवाल पर चर्चा है। ये सवाल ह्युमैनिटी के शायद कुछ मूल और इन्स्टिंक्टिव सवालों मे से एक है। अपनी मूर्खता का खुद ही कायल होने के लिए मुझे ज्यादा मेहनत नही करनी पड़ती इसलिए, ये कहना लाजमी है कि मैं यहां ये नही कह रहा कि मुझे इस सवाल का जवाब मालूम है, मगर कह इसलिए रहा हूं कि डिस्कशन और डिबेट हो ताकि, सत्य का बेहतर अन्वेषण हो पाए। यही सही है...

एक बेहद सम्मानित साइंटिस्ट, एक बेहद ही क्रुएल और नास्टी हसबेंड माने जाते थे। सवाल यही है, किसी एक फील्ड में बेहद सक्सेस्फुल और प्रतिष्ठित होने के बावजूद क्यूं ज्यादातर लोग दूसरे अन्य फील्ड्स में असफल और कुख्यात हो पाते हैं?

इस सवाल का एक जवाब इस उदाहरण से देने की कोशिश कर रहा हूं। एक बेहद बुरा और क्रुएल इंसान था। दोष शायद उसका भी नही। कई परिश्थितियों की वजह से ही वो ऐसा हुआ होगा। फिर कुछ ऐसा हुआ कि वो इंसान आर्मी मैं बहाल हो गया। फौजी होने की उम्दा काबिलियत थी उसकी। फिर लड़ाई छिड़ी और लड़ाई के मैदान मैं उसको बहुत गुस्सा आता, जो उसका मूल स्वाभाव भी था। उसने गुस्से मैं और नफरत से प्रेरित होकर अपनी मशीनगन उठाई और दुश्मनों के खेमे में घुस कर 10 दुश्मन सिपाही मार डाले और खुद भी गोलियां लगने से मारा गया। लड़ाई खत्म हुई और उसको आर्मी ने शहीद का दर्जा दे कर मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया। मीडीया में उसकी वीरता, देशप्रेम और महानता के किस्से छपे। उसकी बीबी बेहद खुश थी कि एक संकट भी टला और उसको वित्तीय फायदा भी हुआ! अब आगे उसकी जिंदगी बड़े आराम से कटेगी!

हमारी सामाजिक परिभाषा हमेशा से ही विचित्र रही है। हम जिन्हें महान और खुदा जैसा होने का तमगा दे डालते हैं, उनकी निजी जिंदगी में उनका पराक्रम क्या होता है, उसकी अनदेखी कर देते हैं। ये बहस का मसला है कि अगर एक इंसान सिर्फ किसी एक ही फील्ड में महानता दिखाता है तो उसको महान मान लेना चाहिए या नही?

पराक्रम और महानता दोनो ही मैं होती है। यहां ये फैसला करना कि कौन सी महानता और पराक्रम बेहतर और श्रेष्ठ है, शायद सही ना हो। ये सब्जेक्टिव डिसिजन है। वैसे, ये बात स्पष्ट हो चुकी है की ज्यादातर लोग, अपने लिए और अपने बच्चों के लिए इनटूयिटिव-इंटेलिजेन्स को ही प्राथमिकता देते हैं मगर, दूसरे से कान्शियस-इंटेलिजेन्स की उम्मीद रखते हैं।

किसी से पूछीये, उसको अपने बेटे के रूप मैं एक आइनस्टाइन चाहिए या एक बेहतर इंसान तो वो आइनस्टाइन को ही चुनेगा। किसी ने साफ कहा, मैं अपने बेटे को तब तक बुद्ध या गाँधी नही बनाउंगा जब तक सारी दुनिया बुद्ध और गाँधी नही हो जाती.

हमारी दुनिया ऐसी क्यूं है? क्यूं यहां ज्यादातर लोग अच्छे साइंटिस्ट्स, प्रोफेशनल, आर्टिस्ट, वारीयर्स और वर्कर्स हैं मगर अच्छे और महान इंसान कम ही हैं? शायद, किसी ने जो कहा वही सही हो, हमारा समाज वही है जैसी हमारी अपनी व्यक्तिगत पसंद और चाय्सस है।

बेशक, अच्छाई, सिंगल-डाइमेन्शनल नही हो सकती। इसको मल्टी-डाइमेन्शनल और मल्टी-फेसेटेड होना ही चाहिए। ये तय है, हम सबको महान कर्म ही करना है और ये जो कर्म है हमारा, वो सिर्फ इनटूयिटिव-एक्शन ही नही है, कान्शियस-इंटेलिजेन्स भी है।

यहां हमारे सोशियल-ट्रैनिंग में एक गलती साफ दिखती है। ज्यादातर मां-बाप अपनी बेटियों की सोशियल एक्शन-बिहेवियर ट्रैनिंग के लिए बेहद इनफ्लेक्सिबल और हाइ बेंचमार्क्स रखते हैं मगर, जब बात बेटों की आती है, तो सारे बेंचमार्क्स हाइली फ्लेक्सिबल कर दिए जाते हैं।

इसलिए, सदियों से बेटियां बेटों से बेहतर इंसान होती हैं। बेटे ज्यादातर महान व्यक्ति बन पाते हैं और बेटियां अच्छा व्यक्तित्व एवं व्यक्ति।

यह अब कुछ थोड़ा बदल रहा है मगर और व्यापक बदलाव की जरूरत है समाज में। स्त्री हो या पुरुष, अच्छा इंसान होना पहली पात्रता व पहला पराक्रम है, सबके लिए।

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नार्मल वर्सेस डीवियंट डिबेट

एक बेहद इंट्रेस्टिंग मुद्दे पर बहुत दिनों से डिबेट चलता रहता है। मसला ही ऐसा है कि बहस के अलावा और कुछ खास हो भी नही सकता। विषय है - नार्मल वर्सेस डीवियंट। क्या नार्मल यानि सामान्य व्यवहार व कर्म हैं इंसानों के लिए और क्या है डीवियंट यानि असामान्य, या यूं कह लें कि विकृत बिहेवियर और एक्शन? अब इसी में यह जोड़ दें कि अगर असामान्य भी है तो क्या और कितना मान्य व अमान्य है?

कुल मिलकर, ये आम सहमति सी बनती दिखती है कि आज की ह्यूमन सोसाइटी में डीवियंट जैसी कोई बात या चीज है नहीं, सब कुछ अब नार्मल या सामान्य जैसा हो गया है। ये बात भी दिखती है कि पाप कल्चर में अब किसी चीज को डीवियंट कहना आर्काइयिक और ओल्ड फैशन माना जाएगा और नार्मल एक्सेप्ट करना ही लिबरल माडर्न थिंकिंग का मान्य मानक माना जाएगा।

एक्सट्रीम ओपीनियन्स की कोई सीमा नहीं। बात यहां तक चल निकली है कि कहा जा रहा है कि दो एडल्ट आपस में, आपसी सहमति से कुछ भी करें, कानून या समाज को कुछ लेना देना नहीं होना चाहिए। ये हर ह्यूमन की फंडामेंटल लिबर्टी है। उदाहरण के तौर पर, युरोप के कुछ देशों में सहमति से इन्सेस्ट भी पनिशेबल नही है और एक और देश इसको लीगेलाइज भी करने को कानून ला रहा है। ह्यूमन सोसाइटी में, इन्सेस्ट से बड़ा टैबू और डीवियंट कुछ भी नही माना जाता मगर अब...!

कुछ रैशनल आइडियाज के कमजोर से स्वर भी सुनाई पड़ते हैं। रैशनलिस्ट्स ने कहा कि अभी का वर्ल्ड रियलिजम से भाग रहा है इसलिए ही एब्स्ट्रैक्ट आइडियाज पाप्युलिस्ट बेंचमार्क्स बनते जा रहे हैं। ये एब्स्ट्रैक्सन्स ही डीवियंट ट्रेंड को नार्मलाइज करने के आंदोलन की मूल एनर्जी हैं।

पुराना कोट है, ‘Man has such a predilection for abstract deductions that he is ready to distort the truth intentionally, he is ready to deny the evidence of his senses only to justify his logic’. यह भी कहा गया ‘Change means movement. Movement means friction. Only in the frictionless vacuum of a nonexistent abstract world can have movement or change occur without that abrasive friction of conflict.’ यहां तक कहा गया, ‘The more horrifying this world becomes, the more human expressions and desires become abstract.’

सोचने का मसला है, ये जितनी भी आवाजें हैं, डीवियंट और नार्मल के डिबेट में, वो कैसी हैं, कितना जुड़ाव है इनका आज की हकीकत और हालात से? साइकालाजिस्ट्स सचेत कर रहे हैं कि आज के दौर में डीपरर्सनलाइजेशन डिसार्डर और डिसोसियेटिव डिसार्डर सिंडरोम्स बहुत तेजी से बढ़ रहा है। इस सिंड्रोम में इंसान अपने सेल्फ-अवेयर्नेस से, अपने नजदीकी और दूरस्थ परिवेश व माहौल से, अपने शरीर और विचार से डिटैच्ड और डिसोसियेटेड हो जाता है। तब वो अनरियेलिटी को ही रियेलिटी समझने लगता है।

रिसर्च से ये बात साबित हुई है की 50 प्रतिशत व्यस्क डीपरर्सनलाइजेशन डिसार्डर ओर डिसोसियेटिव डिसार्डर सिंडरोम्स में से किसी एक या दोनो से प्रभावित हो सकते हैं। ये प्रभाव कुछ देर के लिए हो सकता है या फिर कुछ दिन के लिए भी। इसका सीधा कारण आज के दौर में बढ़ता स्ट्रेस लेवेल है। खैर, इसके कारणों पर अभी नही जाना। बात इतनी है कि रियल और अनरियल का गैप घटता जा रहा है, आब्स्ट्रैक्ट थिंकिंग बढ़ रही है। हमारे-आपके वल्र्ड व्यू में अनरियलिज्म और एब्स्ट्रैकसन्स का असर बढ़ गया है। ऐसे मैं, जब नार्मल और डीवियंट दोनो ही एब्स्ट्रैकसन्स के प्रभाव में हैं, ये डिबेट और भी इंट्रेस्टिंग है की नार्मल क्या है और डीवियंट क्या है?

मेरे अपनी बेहद सीमित सी समझ में, आम तौर पर इंसान तीन ही बेसिक इन्स्टिंक्ट्स के इर्द-गिर्द अपनी सारी जिंदगी गुजार देता है और इन्ही तीन इन्स्टिंक्ट्स को हम सब लोग नार्मल या डीवियंट से प्रभावित होता देखते हैं। ये हैं- फूड, सेक्स, फेथ (रिलीजन)। फूड के डीवियंट होने पर माडर्न वल्र्ड अब थोड़ा सजग हुआ है क्यूं कि स्वास्थ्य समस्याएं बहुत काम्प्लिकेटेड हो रहे थे। मगर, सबसे ज्यादा डीवियंट एक्शन और बिहेवियर सेक्स और रिलिजन (सेनसुएलिटी और फेथ स्ट्रक्चर्स) में बढ़ रहा है। ऐसा प्रतीत होता है। आप सब इस डिबेट को आगे बढ़ायें...

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जिस भाव में देखूं, तुझे पाउं

धर्म में, आध्यात्म में, सबसे प्रमुखता से जिस बात की चर्चा है वो है भाव। कहा गया है, ईश्वर अगर कहीं है तो वो भाव में ही है। जिस भाव से उसको देखो, वो वैसा ही है। इंसानियत के लिए, इस से खूबसूरत बात शायद ही कही गयी हो।

चर्चा है कृष्ण की। अगर भाव में ईश्वर है तो कृष्ण से विषद, व्यापक और विस्मयकारी और कोई भाव-प्रतिस्थापना दिखती नही। वात्सल्य भाव, सखा भाव, माधुर्य भाव, करुणा भाव, हर भाव में कृष्ण के अलावा कोई और आइकान, मेटाफर और सिंबल दिखता नही। इंसानी इन्ट्यूटिव और कान्शियस समझ में कृष्ण से बेहतर और कृष्ण से करीब और कोई मेटाफर या सीड-आइडिया अभी तक बना प्रतीत नही हो पाता। हर इंसानी भाव और आत्मीयता का इस से बेजोड़ मिश्रण और प्रतिष्ठा दिखती नही। जिस भी भाव से देखिए, कृष्ण परिपूर्णता में खड़े दिखते हैं।

आसान नही है इस भाव को समझना। भाव और भावना का द्वंद है। धर्मशास्त्रों में स्थूल और सूक्ष्म (मैटर वर्सेस आइडिया, फार्म वर्सेस सब्स्टेन्स) की चर्चा है। ये जो भाव है, वो उपजता स्थूल से ही है। यानी, भाव भले ही एक आइडिया से बढ़ कर कुछ भी नही लेकिन ये उपजेगा शरीर से ही। बाडी का माध्यम ही जननी है सभी सोल-फीलिंग्स की। इमोशन्स बाडी के बायो-केमिकल मेकेनिजम से ही उपजेगा मगर इसको फिर अपने हायर कान्शियस माइंड से परिष्कृत और परिमार्जित करने पर भाव उपजेगा। इसलिए कहा गया है, शुद्ध-परिष्कृत बाडी ही उत्कृष्ट ईश्वरीय भावों की जननी है, इसका निरादर और तिरस्कार ना हो, बल्कि इसका वैसा ही सम्मान हो जैसा मां का होता है। इसलिए कृष्ण ने कहा, शरीर क्षणभंगुर है, मगर मिथ्या नहीं है।

इस भाव की सृजनात्मकता और सौंदर्य को लेकर बहुत सोचना-समझना है। वात्सल्य भाव, सखा भाव, माधुर्य भाव, करुणा भाव, और इन्ही मूल भावों के अनंत मिश्रण। सब इसी नश्वर शरीर से उपजे भाव। हर भाव में एक दूसरे की झलक, स्वाद और खुशबू, वाह...!

जरा गहरे सोच कर देखिये, ऐसा क्या एक भाव नही हो सकता जिसे मूल और एकल भाव मान कर उसी को अपने जीवन और व्यक्तित्व की गरिमा और संपूर्ण चेतना की एनर्जी बना ली जाये?

आध्यात्म से

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