यूं ही बेसबब by Santosh Jha (best novels for teenagers .txt) 📕
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- Author: Santosh Jha
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ई उंगली सीधी रहे और इसमें इतनी ताब रहे कि समाज के टेढ़े-बकुओं को उठा कर दिखाई जा सके और उन्हें मोहब्बत से पवेलियन के रास्ता दिखाया जा सके। अपने बच्चे सीधे हैं, बालिग नहीं भी हैं तब भी इंसान तो बनेंगे... इतना भी क्या कम है?
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चित भी मेरी, पट भी मेरी और सिक्का मेरे मामू का...!
अपना यह देश बेहद विशाल है और समस्याएं भी उतनी ही विशाल हैं, इसकी तो सबको जानकारी है। मगर, कि वे किस नेचर की हैं, कहां-कहां और किस स्वरूप में हैं, एवं, उनका डायनामिक्स क्या व क्यों है, यह न ज्यादातर को पता है न उन्हें जानने-समझने की उत्सुकता है।
सामान्य स्थितियों में भी आम आदमी से लेकर खास तक सब की अपेक्षाएं सिस्टम से बेहद विशाल हैं और निरंतर बढ़ती ही जा रही हैं। इसलिए, अपने देश में किसी को भी नकारा और भ्रष्ट करार देने के लिए किसी को किसी विशेष विशेषज्ञता हासिल करने की जरूरत नहीं पड़ती, आम जेनेरिलिस्टिक गालियां देने का प्रजातांत्रिक अधिकार सबको जन्म से ही प्राप्त है। यहां, हर इंसान पोस्टमार्टम विशेषज्ञ की निष्ठावान हैसियत रखता है, बिना इस जवाबदेही के अहसास के, कि तारीफ करने में शायद न भी हो, मगर दोषारोपण करने के लिए लाजिकल वेलीडिटी की शर्त होती है।
कुछ बाते अगर पोस्टमार्टम टेबुल तक नहीं लायी जायें तो यह अपने आप में समग्र यथार्थ से मुंह मोड़ने जैसा ही होगा। बात है पोस्टमार्टम करने वाले अति विशिष्ट डाक्टर, यानि, मीडिया के भूमिका की। जो परिजन हैं, इस तंत्र के पीड़ितों के, उनका भावनाओं में बह कर सत्य से मुंह मोड़ लेना संभवतः क्षम्य है, मगर जो तंत्र के विशेषज्ञ पोस्टमार्टम-कर्ता हैं, उनका लाजिकल वेलीडिटी से मुंह फेर लेना गुनाह ही कहा जा सकता है।
तो, बात क्या इस बात की हो, कि कैसे, भावनाओं के प्रवाह में बहता, अपनी निजी एवं संस्थागत प्राथमिकताओं की वजह से बंधे हाथों से सत्य को टटोलता एवं पापुलिज्म की मांग के आगे अपनी प्रोफेशनल एथिक्स को नतमस्तक करता मीडिया, खास कर विजुअल मीडिया पूरे सत्यान्वेषण की प्रक्रिया को एक तमाशा बना रहा है?
नहीं, यह बात नहीं। यह सब भी तो एक तरह से सालों-साल दुहराया जाने वाले पोस्टमार्टम रिचुअल का ही हिस्सा है, जिसकी चर्चा भी बेमानी ही लगती है। बात इस बात की कि कैसे, किसी भी तरह से स्वयं को जवाबदेह एवं रेगुलेटेड न मानने की मीडिया की जिद के कारण, एक अराजक लिबरल सोच व मानसिकता आम आदमी की इंसटिंक्टिव फस्र्ट च्वाइस बनती जा रही है, जिसका शिकार हो रहा है जनतंत्र।
हालांकि, देखा जाय, तो यह चर्चा भी बेमानी ही होगी। किसी ने कहा, इंसान जब इंटेलेक्चुअल हो जाता है तब सवाल अपनी मासूमियत खो देते हैं। इंसानी इंवेंटिवनेस, यानि, इंसान का आविष्कारिक दिमाग, हर सवाल का एक स्मार्ट जवाब खोज लेता है और फिर किलर इंसटिंक्ट के साथ यह जिद करता है कि यही स्मार्ट जवाब, वास्तव में सही जवाब भी है। इस नार्सीसिज्म का कोई काट हो ही नहीं सकता।
कभी, मीडिया की अपनी अंदरुणी व्यापक आचार-संहिता हुआ करती थी। सिखाया जाता था - पत्रकार की हैसियत से जब कर्तव्यपालन कर रहे हों, तब सामने पिता भी खड़े हो जायं तो पैर छूना तो दूर, नमस्कार भी नहीं करना। यानि, निष्ठा सिर्फ कर्तव्य के प्रति हो। कैसी भी विकट स्थिति हो, स्थिति को वैसे ही आब्जेक्टिवली देखना जैसे सारथी बने कृष्ण महाभारत की लड़ाई को देखते थे। और, जो भी दिख रहा है, उसे बिना निज भाव लाये, सिर्फ जो घटा है, उसे बताना।
सीनियर रिपोर्टर्स अपनी रिपोर्ट डेस्क को देकर स्वयं कहते, यार देखना, जरा कड़ाई से एडिट करना, आज हाउस सेशन जरा मारामारी वाला था। भावना में कुछ लिख गया होउं तो बेदर्दी से कांट-छांट देना। पत्रकारिता में जो सबसे बड़ा गुनाह था वह था अतिरंजना। आज यह बड़ा हुनर है। बाद के दिनों में अखबार के एडिटर्स ही अपने रिपोर्टस को कहते, क्या यार वेजिटेरियन टाईप का रिपोर्ट लिख मारे हो, जरा रंगीन बनाओं, नही तो सुबह सर्कुलेशन वाले मां-बहन एक करेंगे।
एक आम व्यक्ति, भावनाओं में बह कर फेसबुक या ट्वीटर पर कोई टिप्पणी कर देता है या कोई स्केच पोस्ट कर देता है तो उस पर देशद्रोह तक का इल्जाम लगाने में मिनट की देरी नहीं होती। मगर, जवाबदेह मीडिया कई संवेदनशील मामलों में भी, तथाकथित सूत्रों एवं प्रत्क्षदर्शियों के हवाले से गलत और भ्रमित करने वाली सूचनाएं देता है और पूरे तंत्र को आम लोगों के सामने बेवजहा विलेन बनाता है, तब उसे कोई कुछ नहीं कहता, बल्कि मीडिया को ढेरों वाहवाही मिलती है। क्यों?
आज भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में सरकारों, नेताओं और शासन तंत्र के खिलाफ आम लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। दोष सिर्फ तंत्र का नहीं है। दुनिया मानती है, भारत में अब चुनाव निष्पक्ष एवं साफ-सुथरा होता है। फिर भी, अगर सैकड़ों दागी या अनैतिक लोग चुने जा रहे हैं तो क्या दोष आम जनता का भी नहीं? आईआईटी के कुछ लोग चुनाव लड़ते हैं और हार जाते हैं। सड़क पर जब पुलिस बिना हेल्मेट पहने दुपहिया चालकों को पकड़ती है या शराब पी कर वाहन चलाने वालों का ब्रेथ ऐनेलाइजर टेस्ट करती है तो हजारों लोग पुलिस को गालियां देते हैं।
आम आदमी की अराजकता और उसकी गैरजववाबदेह व्यवहार को मीडिया अपना हीरो और आइकन बनाता है। मीडिया प्रत्यक्ष तौर पर अराजकता मानसिकता के हिरोईज्म का प्रोमोट करता है।
दिल्ली में आम लोग सड़क पर उतर जाते हैं और प्रदर्शन के नाम पर अराजकता की पराकाष्ठा करते हैं और मीडिया उनको हीरो बनाता है। उदाहरण के तौर पर, एक 16-17 साल की लड़की सुरक्षा घेरा तोड़ कर प्रधानमंत्री आवास के सामने तात्कालिक प्रधानमंत्री को अपशब्द कहते हुए चिल्लाती है और पुलिस के साथ उलझती है। मीडिया का कैमरा सब दिखाता है और स्टूडियों में एंकर कहता है, आप देख रहे हैं व्यवस्था की नाकामी पर आम आदमी का दर्द और गुस्सा! यही तमाशा है जो कोई फर्क ना मानने की जिद लिए बैठा है।
अब अगर पुलिस ऐसे लोगों पर गंभीर कार्रवाई करती है तो पूरा तंत्र मीडिया की नजर में तानाशाह हो जाता है मगर, कोई मीडिया प्रदर्शनकारियों से अपील नहीं करता कि विरोध प्रकट करने के लिए अराजकता की जरुरत नहीं होती। कानून कोई भी तोड़े, वह अपराधी ही होता है, आंदोलनकारी नहीं।
जिस तरह टीवी पर एंकर अपने शो में नेताओं, अधिकारियों और तंत्र के प्रतिनिधियों का मजाक उड़ाते हैं और उनका अपमान करते हैं वह बेहद खतरनाक है। एक चैनल ने एक केन्द्रिय मंत्री से 15 सेकेंड में आपदा राहत पर सरकार की स्थिति स्पष्ट करने को कहा। मंत्री जी जब तक संभल पाते और कह पाते, समय समाप्त हो गया और एंकर ने दर्शकों की ओर मुखातिब होकर निष्कर्ष दे डाला, आपने देखा, सरकार कितनी बेबस है, उसके पास कहने को कुछ नहीं है। साफ है, आम आदमी के दर्द की सुध लेने वाला कोई नहीं। मंत्री जी को पता भी नहीं था कि उनका बयान अब टीवी पर नहीं आ रहा और वे बोलते रहे। सुनना किसे था! सुन कर भी कौन मानता!
एक बेहद वरिष्ठ संपादक ने मुझसे कहा कि टीवी न्यूज पर बहसों में पैनल सदस्य की हैसियत से उन्हें कई निमंत्रण मिले मगर वे कहीं नहीं जाते क्यों कि सब चैनलों की यही शर्त होती है कि आप उत्तेजक व निगेटिव बातें ही करेंगे, जो वे करना नहीं चाहते। विजुअल मीडिया में बहस भी समस्याओं को रंगीन बनाने के लिए होती है, न कि समस्या के समाधान तक पहुंचने के लिए। सब चैनल वालों को लगता है, अगर वेजिटेरियन टाईप बहस करेंगे तो लोग उन्हें इंटेलेक्चुअल कैसे समझेंगे?
मीडिया को स्वयं को नियंत्रित करने वा अवसर दिया जा चुका है। खासकर विजुअल मीडिया को। वे लगातार और भी अराजक हुए जा रहे हैं। राजनीति और सरकारों के हाथ बंधे हैं। उन्हे मीडिया की बेहद जरुरत होती है इसलिए वे उनसे पंगा नहीं ले सकते। अब तो खुद मीडिया वाले भी एक दूसरे पर इल्जाम लगा रहे हैं कि वह फलां दल या नेता का प्रो हो गया है। खुद मीडिया के लोग, अपनी ही बिरादरी के लोगों को डिस्क्रेडिट करते हैं। स्वयं व अपने चैनल को सही ठहराने के लिए दूसरे चैनलों के मीडियाकर्मियों को गलत साबित करते हैं।
खुद मीडिया के अंदर ही कई बेहद गंभीर और जानकार लोग हैं जिन्हें पता है कि भारतीय मीडिया के किन पहलुओं की समीक्षा होनी चाहिए और कैसे गुणात्मक रेगुलेशन-रेजीम बनाया जा सकता है। यह बात मान लेनी होगी कि नीयत में शायद उतनी खोट नहीं। खराबी है पूरे मीडिया के वर्किंग कल्चर में, रिक्रूटमेंट, ट्रेनिंग में और मैनेजमेंट सिस्टम में।
स्पष्ट है कि यह जो बेलगाम और अराजक रिपोर्टिंग की तर्ज है, वह ज्यादातर मामलों में कोई संस्थागत च्वाईस या पालिसी नहीं है। साफ है कि जिस तरह का विशिष्ट प्रशिक्षण हर मीडियाकर्मी को मिलना चाहिए, वह नहीं है। चुंकि, मीडिया की जिद है कि वह कोई बाहरी रेगुलेशन स्वीकार नहीं करेगी, इसलिए, बेहद मूलभूत व जरूरी मसलों को सुधारने की कोई सार्थक पहल नहीं हो पा रही।
आज जो मीडिया की स्थिति है, वह है, चित भी मेरी, पट भी मेरी और सिक्का मेरे मामू का। यह अराजकता का खुला निमंत्रण है, यह स्वस्थ प्रजातंत्र और संवैधानिक मूल्यों के लिए बेहद खतरनाक स्थिति है, जिसका नियंत्रण बेहद आवश्यक है।
यह समझ लेना होगा कि इस बेनियंत्रित मीडिया का व्यापक कल्चर एवं आम मानसिकता पर क्या और कैसे प्रभाव पड़ रहा है। कुछ ऐसे कल्चरल ट्रेंड्स हैं जो विश्व के सभी विकसित देशों के समाज में प्रचलित हो रहे हैं और भारत में भी एक बड़े तबके में, खासकर शहरी मध्य व उच्च-मध्य वर्ग में तेजी से फैल रहा है। मीडिया इन अराजक ट्रेंड्स को बढ़ावा दे रहा है।
पहला खतरनाक सांस्कृतिक चलन है, हर तरह की व्यवस्था के प्रति गहरा आक्रोश एवं उसे पूर्णतः रिजेक्ट करने की जिद। आम अमेरिकी अपनी हर समस्या के लिए राजनीति व शासन को जिम्मेदार मानता है और उसके खिलाफ अपने गुस्से का अराजक हो कर इजहार कर रहा है। अपने ही समाज के प्रति इतनी नफरत भर गई है आम अमेरिकी में कि उनमें से हर दूसरा शख्स आसानी से मिलने वाले हथियार उठाकर अपने ही लोगों को निशाना बना रहा है। अमेरिका ऐसे कल्चर से जूझ रहा है जहां हर इंसान अपनी निजी चाहतों के पूरा न हो पाने के आक्रोश में हिंसा एवं हर तरह के अराजक निजी व्यवहार को जायज ठहरा रहा है।
इसे सोलिपसिज्म के नाम से जाना जा रहा है। यानि, एक ऐसी सोच व मानसिकता जिसमें स्वयं को ही हर सार्थकता एवं सत्यता का केन्द्र मानते हुए स्वयं के अस्तित्व के अलावा किसी भी दूसरी चीज व विचार को न मानना। कई लोग इसे टेक्नालाजी की उपज मानते हैं जो खतरनाक तौर पर पर्सनलाईजेशन की अराजक-चाहत के हद तक ले जा रहा है।
इस सोलिपसिज्म को और भी खतरनाक बनाता है एक ऐसा कल्चरल ट्रेंड जिसे एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म व एंटी-रैशनलिज्म की संज्ञा दी गई है। यानि एक ऐसी मनोदशा जिसमें इंसान जो और जितना भी जानता है उसे ही पर्याप्त मानता है और ज्ञान हासिल करने को बेकार मानते हुए जिद करता है कि ज्यादा जानकारी और नालेज दुख, परेशानियों और बेवजह भ्रम का कारण बनता है। वह यह भी मानता है कि दुनिया में कोई भी ज्ञान सही नहीं है, सब एक तरह का भ्रम है।
एक अमेरिकी लेखिका, जिन्होने इन खतरनाक मनोदशाओं पर किताब लिखी है, ने एक साक्षात्कार में कहा, एक दिन में अमेरिकी समाज की दुर्दशा पर बेहद खफा होकर एक कैफे में काफी पी रही थी तब बगल की टेबल पर दो युवा आपस में, अमेरिका में एक दूसरे को मारने व सड़कों पर लूट लेने की बढ़ती घटनाओं पर बातें करते सुना। एक ने कहा, यह स्थिति बिलकुल पर्ल हार्बर जैसी हो गई है। दूसरे ने पूछा, यह पर्ल हार्बर क्या है। पहले ने गंभीर चेहरा बना कर कहा, जब वियतनामियों ने हम पर हमला कर दिया था और तब हमें उनसे लड़ाई लड़नी पड़ी थी। मैनें वहीं फैसला कर लिया कि मुझे यह किताब लिखनी है।
भारत में कमोबेश ऐसी स्थिति बन रही है। एक चैनल ने देश के हर उम्र के कई लोगों से पूछा कि आरटीआई क्या है। जो जवाब आये, वे पर्ल हार्बर से भी खतरनाक थे। अमेरिकी तर्ज पर, अपने देश में भी जो सबसे खतरनाक कल्चरल ट्रेंड चल पड़ा है वह है आबसेसन फार हैपीनेस एंड फन । आज सिर्फ वही कूल है जिसमें फन है, बाकी सब बेकार है। इस आबसेसन को सोलिपसिज्म
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