यूं ही बेसबब by Santosh Jha (best novels for teenagers .txt) 📕
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- Author: Santosh Jha
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कहा गया है, हर पुरुष को कृष्ण-स्वरूप होना है और हर नारी को राधा-स्वरूप। यह मैटेफर और सिंबल के तौर पर देखा जाना चाहिए। इसमें किसी भी तरह, किसी भी स्वरूप में जेंडर-विवाद ना लाया जाये। मैटेफर और सिंबल के तौर पर कृष्ण और राधा भाव में कोई फर्क नही है। कहते हैं, कृष्ण का ही फेमिनिन-फार्म हैं राधा। मूल भाव दोनों के एकल ही हैं - पितृ-मातृ-भाव। स्त्री-पुरुष भाव सिर्फ फार्म (स्थूल) में अलग-अलग हैं, सब्स्टेन्स (सूक्ष्म) में एकल ही हैं।
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पता नही सही करता हूं या
लाखों शब्द जेहन में बादल की तरह तैरते रहते हैं। प्यास बुझाने को यूं तो एक कतरा बहुत है, मगर सारे शब्द जैसे समंदर के खारे पानी की तरह नकाबिल हो जाते हैं। एक छोटी सी, आसान सी, बेहद सहज-सरल-सुगम सी अभिव्यक्ति के लिए बस एक मासूम से शब्द की आरजू होती है, कमबख्त वो भी नही मिल पाती, अकसर ही...
शब्ददारी की मासूमियत की सहजता से रिश्तेदारी में अजीम दुश्वारी है! फिर भी, कोशिश तो जारी रखनी ही पड़ती है...
कुछ सालों पहले, चंद दिन हिमालय के पहाड़ों पर वक्त गुजारा। जवां गर्मियों में भी नीम सर्दियों सा मौसम, सुकून का विस्तार... छोटी सी आबादी, छोटी सी जगह, छोटे सपने, बड़े दिल वाले छोटे लोग... सहज से भाव, सरल सी बातें, सुगम सी जिंदगी... जिंदादिली और तहजीब पहाड़ों जैसे ऊंचे। अपनेपन की चमक वैसी जैसा पहाड़ों के शिखर पर चमकता बर्फ!
कहने वाले कहते हैं, ये सब टूरिज्म का कमाल है, हास्पिटैलिटी इंडस्ट्री के चोंचलें हैं, वरना इंसान का असली चेहरा वैसा ही दिखता जैसा हर जगह दिखता है। ये सब पैसा फेंको तमाशा देखो का मामला है।
सोचता हूं, पता नहीं सही करता हूं या नहीं... कहने वाले ये भी कहते हैं, ये दुनिया, ये माया संसार सब एक सराय की तरह है जहां लोग चार दिन के लिए आते हैं। जो आता है वो कुछ दिन रह कर चला जाता है। फिर तो ये संसार भी टूरिज्म जैसा ही हुआ। फिर यहां वो हास्पिटैलिटी क्यूं नही दिखती भला? कम से कम स्वागत के चोंचले भी तो दिखते!
पहाड़ों पर भी जो आता है, स्थानीय लोग भली भांति जानते हैं कि वो दो-चार दिन ही टिकेगे, फिर क्यूं वो इतनी हास्पिटैलिटी दिखाते हैं? पैसा फेंक देने से तमाशा शायद दिख भी जाता हो, मगर ये सहजता-सरलता कैसे आ जाती है? और ऐसा है तो यही तमाशा सब जगह क्यूं नही दिखता? कमी तो इस संसार में न पैसे की है न ही फेंकने वालों की।
और, पैसा भी कितना फेंकते हैं? वही चाय वाला मुंबई-दिल्ली में उतना ही पैसा लेता है मगर, सहजता-सरलता से ये क्यूं नही कहता, बाबू, बारिश होनेवाली है, ठंड लग जाएगी, तुम तो शहर वाले हो, कोट पहन लो। होटल का स्टाफ कहता है, क्यूं मिनरल वाटर की बोतल आर्डर करते हो, बेकार पैसे लगेंगे, अपने होटेल का पानी भी तो आर ओ वाला ही है और फ्री है।
सड़क के किनारे बुढ़िया भुट्टे बेच रही है। सावधान करती है, घोड़े वालों से बच कर बेटा मैने तो उस से कुछ लिया भी नही!
सोचता हूं, पता नही सही करता हूं या नही... ता-उम्र सारे रिश्तों पर ना जाने लोग कितना इनवेस्ट करते हैं, कितने सिक्के इमोशन्स के फेंके जाते हैं और कितना तमाशा भी होता है। कितनी हास्पिटैलिटी दिखाई जाती है एक-दूसरे के लिए? कितनी सहजता-सरलता दिखती है?
इस माया संसार के सराय में लोग चार दिन के लिए आते हैं फिर भी जो हास्पिटैलिटी दिखनी चाहिए वो दिखती नही। ऐसा टूरिज्म क्यूं है दुनिया, समाज और परिवारों की इस सराय का?
सोचता हूं, पता नही सही करता हूं या नही...
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बदगुमानी से दोस्ती!
सच में, आदमी थक जाता है। जरूरी नही की थकावट लगातार स्ट्रगल करने की वजह से हो। आदमी थक जाता है, अपने ही इंटेलिजेन्स से, अपने ही इमोशन्स से, प्रोफाउंड सेन्स आफ रिडंडेन्सी से, फ्यूटिलिटी आफ आब्जेक्टिव सब्जेकटिविटी से, हर पापुलर थिंकिंग के अनपाप्युलर बेसिस से...
कैसे भी, किसी कारण से भी, चाहे अपनी गलती हो या ना भी हो, ये मुद्दा तो है ही कि थक तो जाता ही है इंसान। लेकिन, ये जो सोसाइटी और ह्युमैनिटी का विस्डम है, उसको ये मंजूर नही होता!
इतना ज्ञान चारों और से आने लगेगा - क्यूं थक गए, हार मत मानो, स्ट्रगल करते रहो, जो थक गया वो समझो गया। थकने से काम नही चलेगा... एट्सेटरा... एट्सेटरा!
ओफ्ह, थकना भी गुनाह बना देते हैं लोग। ब्लेम भी और गिल्ट भी।
किसी ने कहा - काश, इतना हो पाए कि कोई पास बैठा हो जब थक कर इंसान आराम करना चाहे। बिना जज्मेंटल हुए, निशब्द... खामोश...!
बेहद बेहद अच्छी बात। इसलिए कि शायद, थकने का गुनाह मुझसे भी हो ही जाता है...
क्यूं थक गया, क्या वजह रही, क्या फर्क पड़ता है! बात बस इतनी सी है कि कोई थक जाए तो उसको थकने का पूरा अधिकार हो। उसको ज्ञान और मोरल लेसन्स ना दिए जायें। शायद, उसको चाहिए कुछ और। कम से कम इसको क्रिमिनल औफेन्स तो ना समझा जाए! जरूरी है जज्मेंटल होना?
यह ईमानदारी और मासूमियत भी सब्जेक्ट टू मार्केट एंड सोसाइयेटल कंडीशन्स है!
इंसान थक जाए तो उसको क्या चाहिए। कुछ नही। बस इतना कि उसके सारे बोझ चंद लम्हों के लिए ही सही, उतार कर रख दिए जाएं। वो खुद को भी भूल जाए। सारे सवाल जवाब, एक एक शब्द खामोश हो जायें। अपना वजूद भी थोड़ी देर के लिए शर्ट की तरह कहीं टांग कर छोड़ दिया जाए। यह कम से कम है। खामोशी और लटक जाना थोड़ी राहत है...
यह हालांकि आइडियल नहीं। यह इस थकावट का ईलाज नहीं। आइडियल यह है कि कोई थका हुआ, सुबह-सुबह, मासूमियत की ओस की बंूदों से नहा कर सोने जाए, तो कोई निशब्द उसके सर को तौलिए से लपेट कर सूखा दे। बालों पर उंगलियां फेर कर बिना कुछ कहे इतना भरोसा दिला जाए कि वो उसके पास ही है...
और जब इस भरोसे के अहसास से रोते-रोते उसकी हिचकियां बेलगाम हो जायें, वो उसको कलेजे से लगा कर उसके अश्क और हिचकियों को, अपनी बड़ी बड़ी आंखें दिखा कर, डरा कर भगा दे... फिर जो उसको नींद आ जाएगी, सारी थकावट मिट जाएगी।
मगर, ये मेटाफर है, कोरी सिंबलिज्म है, ख्वाब है, हकीकत नहीं है। असलियत में, आम इंसान के लिए, थकावट का एक ही उपाय है। साइलेन्स। कुछ देर के लिए ही सही, अपनी शर्ट उतार कर वक्त की खूंटी पर लटका दीजिए... नींद आए या ना आए, इस बदगुमानी से दोस्ती कीजिए की वो शायद आ जाएगी...
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दुख जैसा है, तभी अपना है
तेरा मिलना बहुत अच्च्छा लगे है, की तू मुझको मेरे दुख जैसा लगे है...
ये चर्चा, किसी के हुस्न की नही है। ना ये बयान है किसी के संग आसनाई के लुत्फ की। सीधे-सहज-सरल लफ्जों में यह तरजुमा है एक सत्य का। सच्चाई यह कि अपनापन और सोहबत की हदे-तकमील क्या है।
अपना क्या है? कौन है?... वही जो अपने दुख जैसा है! मतलब?
सुख फैलाव है। आप जब खुश होते हैं, हर जर्रा, फलक और आफताब, यहां तक कि आपके वजूद का रग-रग नृत्य करता हुआ सा महसूस होता है। नाचना, बिखेरने का प्रोसेस है। खुशियां बिखेरी ही जाती हैं। खुशियां बंटती हैं तो उन्हें एक तरह से बिखेरा ही जाता है। यही होना भी चाहिए। खुशी से बेखुदी, उससे तगाफुल न सही मगर ज्यादा आसनाई भी नहीं। यही राह है।
दुख सिमटाव है। आप दुखी होते हैं तो कम्पैशनेट होते हैं। गाते हैं, ये सब कुछ समेट कर अंदर लाने का प्रोसेस है। इसलिए दुख को सुख से ऊपर और बेहतर मान कर शायर ने अपनी सोहबत के बारे में ऐसा कहा। इसे समझना है।
ठहर जाइए, खुद को अपने दुख की तरह अंदर समेट लीजिए। दुख के साथ अपनी इंटिमेसी, अपनी आसनाई को सेलेब्रेट करने के लिए बेजार रोइए। तब जब खुद से मुलाकात होगी, सब कुछ अपना सा लगेगा। अपनापन, आसनाई और उसके रस-रंग समझ मैं क्या आएंगे जिसने दुख को नहीं समझा और उसका इस्तकबाल नही किया...
दुख मिला, उसको गले लगा लीजिए। कहते हैं, ईश्वर जिसको पात्र, यानि योग्य और एलिजिबल समझता है, उसको दुख के गहनों से संवार देता है।
हालांकि, ये मेटाफर के तौर पर समझा जाना चाहिए। वरना, इंसानी इंजेन्यूटी इसको भी सिनिसिजम, हिपाक्रिसी और सैडिज्म ही कहने मैं नही हिचकेगी...
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अच्छा किया, बहुत अच्छा किया
कहते हैं, किसी शजर, यानि पेड़ की उम्र का अंदाज उसके तनों में पड़ी गांठों से लगता है। शायद, इंसानों के साथ भी ऐसा ही होता है। हां, उसमें वो गांठें दिखती नहीं।
ये शजर का मेटाफर भी कितना अजीब सा है। एक प्रसिद्ध शायरा ने ईश्वर से कहा कि वो उसको एक ओक ट्री बना दे। अच्छाई का माडल कितना कठिन दिखता है। ये शायद एक शजर बेहद मुकम्मलियत से दिखा पता है। खुद कड़ी धूप में लगातार खड़ा रह कर भी औरों को साया देना, अपने फ्रूट्स खुद ना खा कर लोगों को खिलाना, फलक से अगर बिजलियां गिरें तो खुद पर ले लेना और सबको सुरक्षित रखना। लगता है सारे दुख और दर्द ले कर ही एक शजर एक अच्छाई का माडल पेश कर पाता है।
मगर, अच्छाई ऐसी मुश्किल भी नही होती। दुख दर्द किसके हिस्से नही आते। मगर, सुबह-सुबह, वही फलक जब लाखों ओस की बूंदों से उस शजर को प्यार-दुलार से नहला जाती है, अल्हड़ शरारती और परी सी खूबसूरत हवा जब उस शजर के पूर वजूद को अपनी आगोश में ले कर झुमा देती है, रात में चाँद जब उसके पत्तों से नजरें चुरा कर अपनी रोशनी से शजर के पैरों में चाँदी की पाजेब पहना जाती है, कोयलिया उस शजर की डाल पर बैठ कर जीवन का राग गाती है, कोई मुसाफिर थोड़ी देर आराम कर जाते-जाते जब उस शजर को लाखों दुआएं दे जाता है, ये सुख का समंदर क्या आँचल में समेटे सिमटेगा?
इसीलिए उस शायरा ने सोचा की चलो ओक ट्री हो जायें। अच्च्छा किया... बहुत अच्छा किया...!
दरअसल, ज्यादातर लोग किसी भी आइडिया या मैटर का सिर्फ एक ही पहलू देख-समझ पाते हैं। या अच्च्छा या बुरा, या सुख या दुख, या गलत या सही। जबकि, कहते तो हैं कि वो होलिजम में बिलीव करते हैं मगर, प्रैक्टिस में ला नहीं पाते। खैर...
ज्यादातर लोग डर भी जाते हैं। सिखाया जो गया होता है की शजर होना बहुत दुख-दर्द का सबब है। और, शजर को जो सुख नसीब है, उसकी कदर, यूटिलिटी और आनंद की ना उनको समझ होती है, ना हुनर, ना चाहत। सभी सुख ही चाहते हैं। मगर सुख है क्या? यह जान-समझ पाना आसान नहीं। शजर होना आसान नहीं। लेकिन, सभी सब कुछ आसान ही पाना चाहते हैं। खैर...!
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हर तरफ, हर पल, मिरैकल ही मिरैकल
मेहंदी हसन साहेब की गजल याद आ रही है-
ये मोजिजा भी मुहब्बत कभी दिखाए मुझे,
कि संग तुझ पे गिरे और, जख्म आए मुझे
(मोजीजा=चमत्कार, संग=पत्थर)
शायर भी अजीब होते हैं। दुनिया कुछ भी चाहे, उनकी चाहत अलग ही होती है। लोग-बाग अपनी जिंदगी में ना जाने कितने ही चमत्कार और मिरैकल की उम्मीद रखते हैं ताकि उनके सारे बिगड़े काम संवर सकें और सारे दुख-तकलीफ खत्म हो जायें। मगर, देखिए शायर साहेब को, उनको इस मिरैकल की आस है जिस से की उनकी प्रेमिका को जो भी तकलीफ हो, उसका ज़ख्म उन्हे मिल जाए। इसलिए शायद कहते हैं, आशिकी से बड़ा कोई मिरैकल नही होता!
देखा जाए, गौर कीजिए, तो इस मिरैकल की उम्मीद बेमानी है। ये तो सच्चाई है जो हर रिश्ते में होती है। जहां भी मरासिम हो, आशनाई हो और अपनापन हो, आपका कोई भी अगर गलत करे, नादानी करे, तो उसका असर आप तक ऐसे भी आ जाता है। ये असल चमत्कार है। ये जो असर ले पाते हैं हम, कोई अपना हजारों किलोमीटर दूर हो मगर उसकी नादानियों से दिल में ज़ख्म लग ही जाता है।
देखा जाए तो मिरैकल तो रोज ही हजारों होते हैं। बड़े बड़े साइंटिस्ट्स तक ने कहा की जिंदगी का यही तो असली लुत्फ है। अल्बर्ट आइनस्टाइन ने कहा, दी मोस्ट ब्यूटिफुल थिंग वी कैन एक्सपीरियेन्स इज द मिस्टिकल। इट इज द सोर्स आफ आल ट्रू आर्ट एंड साइन्स । जिंदगी की इन्ही मिरैकल्स से हर आर्ट और हर साइन्स जन्मा और मकबूल हुआ है।
सच कहा
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