यूं ही बेसबब by Santosh Jha (best novels for teenagers .txt) 📕
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- Author: Santosh Jha
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इतना ही क्यूं, हर दिन हमारे चारो और मिरैकल्स होते हैं। लाखों बच्चे रोज बिजी सड़क ट्रॅफिक पार करके स्कूल से घर आते हैं और उन्हे कुछ नही होता। सुनामी आती है, भूकंप आता है, शहर के शहर तबाह हो जाते हैं, कुछ मरते हैं मगर लाखों लोग बच जाते हैं। कोई बच्चा मलवे में से भी एक सप्ताह के बाद भी जिंदा बच कर निकल जाता है। हर तरफ हर पल मिरैकल्स ही मिरैकल्स हैं।
और, जो मिरैकल हर पल हमें खुशियां देते हैं। उस्ताद बड़े गुलाम अली खान साहब गाते हैं, सचिन तेंदुलकर सेंचुरी लगाते हैं, अमृता शेरगिल पेंटिंग करती हैं, गालिब साहेब गजल कहते हैं। मिरैकुलस... एक ही शब्द है इनको बयान करने को। और कुछ ऐसा संभव कर ही नही सकता।
ऐसे ही कई मिरैकल्स हैं। खूबसूरती शायद इस बहस में नही है कि ऐसा क्यूं है। एक रूल आफ काउजैलिटी है। ये रूल आफ काउजैलिटी ही यूनिवर्स का कार्डिनल रूल है। सवाल पूछते हैं लोग, वाइ देयर आल्वेज इज समथिंग रादर देन नथिंग? यानि, ऐसा क्यूं है कि हमेशा ही कुछ होता ही है और कुछ नहीं नहीं होता। जवाब यही है, द रूल आफ काउजैलिटी। कोई भी चीज इस यूनिवर्स में इस काउज-इफेक्ट, यानि कारण-परिणाम के दायरे से बाहर नहीं इसलिए कहीं भी किसी समय में भी कुछ होता ही है। ऐसा कभी नही होता कि कुछ नही होता। इसलिए, चमत्कार दिखता हुआ सा महसूस होता है जबकि यह सिर्फ कारण-परिणाम का किसी न किसी प्रकार का चक्र होता है।
स्टीवन हाकिंग ने उम्दा बात कही, ‘The whole history of science has been the gradual realization that events do not happen in an arbitrary manner but that they reflect a certain underlying order which may or may not be divinely inspired.’
खैर, सबसे उम्दा बात मगर ये है, जो शायद इस यूनिवर्स का सबसे बड़ा मिरैकल है, वो है कि कितना भी गलत हो, कितनी भी खराबी हो, कितना भी अंधेरा हो, इंसान का सच्चाई, अच्छाई और उजाले पर से भरोसा कभी नही उठ पाया। इसलिए ही यह सृष्टि निर्बाध चलती रही है।
इस मिरैकल को एक शायर ने बेहद उम्दा तरीके व खुबसूरती से पेश किया है-
शिकन अब रूह पे डाली, तुमने अपनी, आशिकी उल्टी,
तआज्जुब है, बिना-ए-आलम-ए-इम्कां नही उल्टी...
(Affection lost as you put suspicion on your soul but still, it is a miracle that faith on the foundation of life’s goodness is not lost)
यही वजह भी है हर इंसान के खुश रहने की। यह जो बिना-ए-आलम-ए-इम्कां के कभी न उलट पाने का चमत्कार है, यह जो लाजवाब मिरैकल है, वह सबब-ए-तश्कीन है।
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माइंड की अपनी लिमिटेशन है, दोष किसी का भी नही...
शब्दों का अपने-आप में कोई खास महत्व नही। चारों ओर शब्द ही शब्द हैं। मगर, फिर भी उनका किसी पर असर हो, इसके लिए शब्दों की अच्च्छाई और उपयोगिता तभी बन पाती है जब शब्दों को बेहद उम्दा और ढेर सारे प्यार, आस्था और अपनेपन से स्वीकार किया जाए।
शब्द तभी कामयाब और असरदार होते हैं जब उनको सुनने वाले की कहने वाले पर असीम आस्था हो। किसी ने मुझसे कहा कि उनकी बिटिया उनकी बात को सच नही मानती लेकिन अपनी टीचर की हर बात सच मानती है जबकि उसकी टीचर गलत भी होती है और वो अपनी बिटिया की टीचर से बहुत ज्यादा एजुकेटेड व क्वालिफाइड भी हैं। साफ है, बिटिया की आस्था के तार उसकी टीचर से जुड़े हैं क्यूं कि बिटिया के सब-कान्शियस माइंड में ये बात गहरे अंकित है कि सिखाना उसकी टीचर का डूमेन है और उसकी मां का डूमेन कुछ और है।
मैं जो भी शब्द यहां कहने की कोशिश कर रहा हूं या ऐसे भी, कभी किसी को कहा हो, उसका असर अगर कभी नहीं हुआ हो तो ऐसा लगता है कि लाख चाहने पर भी ना आस्था नहीं बन पाई होगी, वह अपनेपन की फीलिंग लोगों को महसूस नहीं हो सकी होगी। यह कोई शिकायत का सबब नही है, यह माइंड की अपनी लिमिटेशन है, दोष किसी का भी नही...
किसी भी उपज के लिए, किसी भी फसल की आमद के लिए, पहले जमीन तैयार करनी पड़ती है। महान गायक उस्ताद अमीर खान साहब ने कहा कि सुर लगाने से पहले सुर की जमीन तैयार करना बेहद जरूरी है वर्ना बात नहीं बनती। महान गायक भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी साहब ने कहा कि किसी संगीत सभा में गाने के लिए पहले से कोई राग या बंदिश तय नहीं करते थे। संगीत सभा से चंद मिनटों पहले जब वे अपना तानपुरा मिलाते, तब मौजूदा माहौल व मूड के हिसाब से जिस भी सुर की जमीन तैयार होती दिखती, वही राग और उसके अनुसार उसकी बंदिश तय करते। तभी, जब वे गाते, सुरों की जादूगरी सबके सर चढ़ कर बोलता।
ये जानते हुए भी कि मैं निरा मूर्ख हूं, मुझमें इतनी ताब नहीं कि मैं सुर समझ सकूं, फसल की आमद का हुनर जान सकूं, शब्ददारी के राग की कोई बंदिश साध सकूं, फिर भी मैं कह रहा हूं। मेरी किसी बात का कोई असर होगा या नहीं, मैं उसकी ओर सोच भी नहीं रहा, क्यूं कि मुझे अपना गुण तो बिलकुल नहीं दिखता, मगर आप गुणी पाठकों की सहृदयता दिखती है। कहते हैं, जमीन किसी भी बीज की पात्रता नहीं देखती। बस निरपेक्ष भाव से उसे उपजा देती है। इसलिए, आप पाठकों की जमीन पर अपनी मूर्खता की बीज बिखेरते मैं जरा भी घबरा नहीं रहा...
हमेशा ही बात निकलती है कि ऐसा क्यूं है, वैसा क्यूं नही है? इंसान के पास बहुत से सवाल हैं, उसकी वेलनेस को लेकर, गुडनेस को लेकर, क्या सही है क्या गलत है, आदि। सवाल तो हैं और पूछे भी जाते हैं। मगर, जवाब नही मिलता, जबकि हर इंसान के पास अपना एक जवाब होता ही है।
कुछ बातें बेहद जरूरी दिखती हैं, अगर हम एक्सेप्ट कर पायें तब। कहते हैं, सवाल को उसकी पूर्णता में समझना उतना ही जरूरी है जितना सही व पूर्ण जवाब पाना। अमूमन, सवाल की आमद ही पूर्णतः समझ नही पाते हम सब। कोई भी सवाल करने से पहले और कोई भी जवाब देने से पहले तीन बातें जरूर आब्जेक्टिव्ली, रैशनली, होलिस्टिकली और मल्टी-डाइमेन्सनल अप्रोच से समझ लेना जरूरी दिखता है-
इंसान का अपना एग्जिस्टेन्स क्या है? हम हैं क्या? हमारा वजूद क्या है? हमारा बाडी-माइंड मेकअप ओर फंक्सनल मेकेनिजम क्या है?
हमारा और सभी जीवों का इस यूनिवर्स से रिलेशनशिप क्या है? सब कुछ एक काउजल सिचुएश्नैलिटी है, यानि कारण-परिणाम की श्रृंख्ला है। एक चेन है काउज-इफेक्ट का। इंसान और कासमोस का यह काउजल रिलेशनशिप क्या है? यानि, क्या होता है तो क्या हो पाता है या नहीं हो पाता और क्या नहीं होता है तो क्या नहीं हो पाता या हो पाता है?
अरबों सालों का कासमिक और ह्यूमन इवोल्यूशन क्या है? इस इवोल्यूशन की एनर्जी क्या है? जो हुआ वो क्यूं और कैसे हुआ? और जो होना है वो क्यूं व कैसे होना है?
स्वभाविक है, सब कहेंगे, एक आम आदमी के बस मैं नहीं है इन सारे सवालों को समझना और फिर जवाब समझ पाना। ठीक है, तो फिर सोचिए कि आसान क्या है? और अगर आसान होता तो ये सवाल-जवाब की दुविधा ही क्यूं होती? बहुत मेहनत की जरूरत होगी, ये तय है। मगर, कौन सा वह काम आसान होता है जो मीनिंगफुल होता है? एक अदद अच्छी नौकरी पाने के लिए 25 साल लगते हैं फिर भी शायद... मगर जीवन के सवाल समझने के लिए...?
इन सारे सवालों को समझने के लिए, हम सभी को पीढ़ियों से, रिलिजन, फिलासफी और लिटरेचर पढ़ाया जाता रहा है। ठीक है, इसे भी पढ़ें और समझें। मगर, थोड़ा सा यह भी पढ़ें कि साइन्स ने जो पिच्छले 15-20 सालों मैं सवालों को समझा है और उनके जवाब दिए हैं। ह्युमैनिटी की समस्या ही यही है कि हम कुछ थोड़ा-बहुत समझ लेते हैं और खुद को बड़ा विद्वान समझ कर अपने दिमाग के सारे दरवाजे बंद कर लेते हैं। तो पहली पहल यह है कि खुद को पहले मूर्ख मान लें हम...
विस्डम के लिए जरूरी शर्त है हर चीज का एक्सेप्टेन्स, यानि स्वीकार्यता। और फिर यथार्थ के हर पहलु का एक फाइन बैलेन्स। इस यूनिवर्स के इवोल्यूशन को जब समझेंगे तब जान पाऐंगे कि कोई भी चीज अपने आप में अच्छी या बुरी नहीं है। सब कुछ एक काउज-इफेक्ट चेन से बंधा है। इसलिए, यह समझा जा सकता है कि सही होना है आब्जेक्टिव और बैलेन्स्ड होना और गलत होना है सब्जेक्टिव होकर पार्शियल हो जाना।
उदाहरण के तौर पर, वेटरेन एक्टर, राजकुमार साहब कैंसर से पीड़ित हो कर जीवन से स्ट्रगल कर रहे थे, मगर बेहद ग्रेसफुली। किसी ने आत्मीयता दिखाते हुए कहा कि ईश्वर का भी क्या न्याय है, कैंसर आपको ही होना था? राजकुमार साहब ने अपनी चिरपरिचित खुशमिजाजी में जवाब दिया, तुम्हे क्या लगता है कि मैं जुखाम से मरने वाला इंसान हूं, मुझे तो कैंसर ही होना था। कुछ लोगों के लिये यह प्राइड हो सकता है जो इंसान के लिए बुरा माना जाता है। मगर, उस परिस्थिति में राजकुमार साहब के लिए ये प्राइड अच्छा था क्यूं कि मरना तो था ही, तो क्यूं ना तथाकथित प्राइड का सहारा लेकर सम्मान व सुकून में मरें! वेलनेस का एक यही रास्ता बचा भी था शायद! इसमें किसी का कोई नुकसान भी नही था। कभी भी, किसी भी चीज की यूटिलिटी या सार्थकता को लेकर ना एक तरफा जज्मेंट दें ना ही उसको लेकर डागमैटिक हो जायें। हम सब लोग, हर रोज चीजें बदलते हैं। टेक्नालजी आबसोलीट हो जाए या टेक्नालजी अपग्रेड हो जाए तो मोबाइल फोन और गाड़ियां बदल लेते हैं। मगर, अपना आबसोलीट माइंड और आबसोलीट वैचारिकता व मान्यताएं नही बदलना चाहते, ना ही उसको अपग्रेड करने को तैयार होते हैं।
तमाम साइंटिफिक व टेक्नालाजिकल गैजेट्स इस्तेमाल कर के अपने लाइफ को बेहतर और आरामदायक बनाते हैं। साइन्स का हमारे वेलनेस में बड़ा योगदान है मगर अपनी लाइफ में, अपनी सोच मैं, अपने आइडियास और आइडियालजीस मैं जरा बहुत सारा साइंटिफिक टेंपर नही लाना चाहते। यह स्वीकार्यता नहीं आ पाती। यहां तक कि हमें पता भी नहीं होता की हर फील्ड में साइन्स ने खुद को ही कितना अपग्रेड किया है और लगातार कई सवालों को समझ कर साइन्स अपग्रेडेड जवाब भी दे रहा है। हम सब लोग इनर्सिया को ही सबसे बड़ा वेलनेस मान बैठे हैं। यही हमारे वेलनेस का सबसे बड़ा दुश्मन है।
देखिए, किसी ने कहा, इंसान को वही करना चाहिए जिसे उसका दिल सही समझता है। ज्यादातर लोग इसी फिलासफी को प्रैक्टिकल आपरेटिव इंटेलिजेन्स मान कर वही करते हैं। ये आइडिया इंडिविजुयल और सोसाइटल वेलनेस का सबसे सुसाइडल डाग्मा है। याद कीजिए, दुर्योधन भी वही कर रहा था जो वो सही समझ रहा था। और अंत तक वही करता रहा! हम सब लोग यही कर रहे हैं। एक ऐसा जहर बो रहे हैं जो हमारे अरबों सालों के इवोल्यूशन को नीगेट कर रहा है, नकार रहा है। यह अगेन्स्ट इवोल्यूशन विस्डम है जिसे हम सब अपना फेवरिट पर्सनल विस्डम मान बैठे हैं।
तो, यह तो तय ही दिखता है कि मेहनत बहुत करनी पड़ेगी। आसान नहीं है लाइफ के सवालों को समझना और फिर जवाब समझ पाना। हम सब लोग बहुत फार्चुनेट हैं कि टेक्नालजी ने आज राहें काफी आसान कर दी हैं। इंटरनेट बहुत बड़ा रिवोल्यूशन है। दुनिया भर में बहुत कुछ अपग्रेड हो रहा है, बहुत तेजी से इवोल्व हो रहा है। हम सब लोग जो लाखों सालों से समझते और सच मानते आ रहे थे, वो सब आज नयी परिभाषा व समझ के दायरे में आ गया है। बेहद उम्दा बात यह है कि इंटरनेट पर सब अवेलेबल है, वह भी ज्यादातर बिलकुल मुफ्त!
अब हम अगर हजारों सालों पुराना आबसोलीट विस्डम माडेल ही जीना चाहें तो हमें कौन रोक लेगा। लिबर्टी सबकी है, सब कहते ही हैं, जो मैं ठीक और सही समझता हूं वही मेरे लिए सत्य और सही है। किस को कोई समझा भी नही सकता कि जो हम सही समझ रहे हैं वो कितना गलत है। यह तो व्यक्तिगत आस्था का प्रश्न है। गलत इसलिए है कि हमने उसको अपग्रेड नही किया है और करना भी नही चाहते क्यूं कि उसी को सही मान लेने की
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